अर्की आजतक
सायरोत्सव विशेष
“उजुए गे उज़्जुए सिया देइये राणिये तां तो हेरू पाणी खे जाणा हो”- ब्रह्मताल सिया गायन!
“सैर” पर्व पर कुछ विशेष प्रथाएं (मान्यताएं, मर्यादित परम्पराएं) जो भुला दी गयी है या कुछ जो किसी स्थान पर देवदंश के भयस्वरूप बची हैं उन्हें सहेजना तथा आने वाली पीढ़ियों के सुपुर्द करना नितांत आवश्यक है।
1. अश्विन/शौज की सक्रांति को शरदः ऋतु के आगमन का सूचक माना जाता है।
2. सायरोत्सव से पूर्व संध्या को हिमाचल के बाड़ीधार में सबसे पहला बरलाज किया जाता है जिसमें ‘ठामरु’ गायन में छुकड़ा नृत्य किया जाता है।
3. सायर का एक अभिप्राय सागर से भी है। पहाड़ी रामायण में प्रचलित गाथानुसार आज के ही दिन प्रभु लक्ष्मण यति ने नल-नील की सहायता से शायर यानी सेतु का निर्माण लंका के लिए किया था। (जतिये शायर लाया-2)
4. ‘सिया’ गायन करते हुए गांव की महिलाएं सुबह सबसे पहले जलस्त्रोत (बांवड़ी) पूजने जाती हैं। ‘सिया’ गायन लगभग आज विलुप्त हो चला है।
5. खरीफ़ की फ़सल की पूजा करके मक्की, अखरोट, दाड़ू, खीरा इत्यादि घर से जलस्त्रोत के समीप ले जाते हैं। विधिवत कुलदेवता/कुलदेवी का नाम ले कर प्रकृति का धन्यवाद करके वरुण देवता को समर्पित कर देते हैं।
6. रक्षाबंधन को पहनी हुई राखी ओर मौली इत्यादि यहीं पर उतारने की परम्परा है। किन्हीं-2 स्थानों पर पेठा पूजने के पश्चात उसपर घर के सदस्यों की राखियां उतार कर पूजन होता है तथा उसके बाद जल के समीप ले जाते हैं।
7. हिमाचल के कई भागों में “सैरी” माता को फ़सल की देवी के रूप में पूजते हैं इसीलिए घर का कोई एक सदस्य नया अन्न सैरी माता के पूजन के बाद ही ग्रहण करता है।
8. सुकैत/मंडी ओर अन्य कई स्थानों पर कुहरी, पुठकण्डा (अपामार्ग), कोठा पुष्प , गलगल की जोड़ी, गेहूं, धान इत्यादि की बालियां घर में लाकर पूजते हैं। अखरोट ओर द्रुवा पूजन का यहां बहुत महत्व है। प्रकृति की पूजा करने के बाद द्रुवा घास को सगे-सम्बन्धियों अधिकतर ननिहाल पक्ष को सप्रेम अर्पित करने की बहुत पुरानी मान्यता है।
9. शिमला के ऊपरी भाग ओर कुल्लू घाटी में जो भादो मास की सक्रांति को घर के बरामदे या आंगन के किनारे पर “चिड़ा” बनाया जाता है, एक महीने के रोजाना विधिवत इस्तेमाल के बाद सायरोत्सव को ही इसे नष्ट करते हैं। मान्यता है कि इसे जलाकर काले महीने में काली शक्तियों का साया उस घर-आंगन में नहीं रहता। चिड़े की समाप्ति पर वह शक्तियां आज स्वयं भाग जाती है।
10. कुछ जगह पर परलोक यात्रा पर गई देव-शक्तियां आज अपनी देवठी/कोठी में प्रवेश कर जाती है।
11. ख़ीर, चिलडु, मालपुड़े, भल्ले, बबरु, पतरोड़े ओर अन्य कई तरह के पकवान घर की रसोई में बनते हैं। कुल्लू की लग घाटी में बड़े बुजुर्गों को ‘दवू’ देकर उनका आशीर्वाद लिया जाता है।
12.मंडी क्षेत्र के कुछ भागों में यह मान्यता भी है कि “सैर” नाम की एक डायन हुआ करती जिसका अंत स्थानीय देवताओं ने किया था।
13. श्रावण ओर भाद्रपद मास में होने वाली वर्षा, आंधड़, बिजली के चलते लोग घरों से नहीं निकलते थे। सायर का यह समय घरों से निकल कर मौज-मस्ती ओर सैर-सपाटे के लिए सुहावने मौसम के कारण अधिक प्रिय है। फ़सल कटान ओर तुड़ान से आय के चलते भी लोग सायरोत्सव का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं।
14. राज्य में कई स्थानों पर आज के दिन भैंसों की लड़ाई करवाई जाती थी, इस परम्परा पर माननीय उच्च न्ययालय के आदेशों के बाद रोक लगा दी गयी है। देव-दंश से बचने के लिए भैंसे को तिलक लगाकर इस पूजा का निर्वहन किया जाता है। कुश्ती की परंपरा आज भी चली आ रही है।
15. सायरोत्सव से पूर्व संध्या को कई देव स्थलों पर जाग का आयोजन किया जाता है।
16. सायरोत्सव के तुरंत बाद पितृ-पक्ष शुरू हो जाता है। कई स्थानों पर पुराने पानी के स्थान या बांवड़ियों के पास भाद्रपदा माह में पाप (पितृ) पूजने की भी परम्परा होती है। यदि किसी कारणवश वह पूजा छूट जाती है तो कहते हैं सायरोत्सव के दिन बांवड़ी के पास उस पूजा को भी किया जा सकता है।
ललित गर्ग की कलम से✍️