संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
राम-लक्ष्मण और विश्वामित्र जी जनकपुर की यात्रा रघुकुल के शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऋषियों के साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मण समेत बैठे।
गोस्वामी जी कहते हैं की जब दोपहर हुई तो लक्ष्मण जी के मन में एक लालसा जगी हैं। क्यों ना हम जनकपुर देख कर आएं? परन्तु प्रभु श्री रामचन्द्रजी का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं, इसलिए कुछ बोल नही पाते हैं और मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं।
एक बात सोचने की हैं की लक्ष्मण जी के ह्रदय में आज तक कोई लालसा नही जगी हैं। बस एक ही लालसा हैं की भगवान राम के चरणों में प्रीति जगी रहे। लेकिन आज क्यों लालसा जगी हैं। इसका एक कारण हैं जो संत महात्मा बताते हैं- लक्ष्मण जी कहते हैं ये मेरी माँ का नगर हैं। क्योंकि लक्ष्मण सीता जी को माँ ही कहते थे। और कौन होगा जिसका मन अपने ननिहाल को देखने का ना करे? बस इसलिए आज लालसा लगी हैं।
लेकिन भगवान राम जान गए हैं आज लक्ष्मण की अभिलाषा। अब रामजी ने गुरुदेव को कह दिया हैं की-
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥ जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥
हे गुरुदेव! आज मेरा लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, लेकिन आप के डर और संकोच के कारण बोल नही पा रहा हैं । यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही वापस ले आऊँ।
गुरूजी कहते हैं- अच्छा ठीक हैं अगर लक्ष्मण नगर देखना चाहता हैं तो उसे भेज दो। जनक जी के नौकर खड़े हैं मैं उन्हें बोल देता हूँ और वो दिखाकर ले आएंगे।
राम जी कहते हैं- नही, नही, गुरुदेव बात ऐसी हैं यदि मैं दिखाने चला जाता तो? मैं साथ चला जाऊं?
गुरुदेव बोले- बेटा, देखना उसे हैं, दिखाएंगे जनक जी के नौकर। तुम क्यों परेशान हो रहे हो? तुम क्या करोगे? आज गुरुदेव रामजी के मन की भी देखना चाह रहे हैं।
राम जी बोले गुरुदेव , अगर मैं साथ जाता तो अच्छे से दिखा कर लाता।
गुरुदेव बोले की अच्छा, तुम पहले से जनकपुर देख चुके हो क्या? क्योंकि वो ही दिखायेगा जिसने खुद देखा हो।
रामजी ने संकेत किया- गुरुदेव, लखन छोटा हैं। कहीं नगर देखने के चक्कर में ज्यादा देर ना लगा दे। अगर मैं जाऊंगा ना, तो लक्ष्मण को तुरंत ले आऊंगा।
गुरुदेव ने आज्ञा दे दी हैं। और कहा हैं अपने सुंदर मुख दिखलाकर सब नगर निवासियों के नेत्रों को सफल करो। दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वंदना करके चले हैं।
आज सबसे पहले बालकों ने भगवान के रूप का दर्शन किया है। और बालक इनके साथ हो लिए हैं।
एक सखी कहती हैं ए दोऊ दसरथ के ढोटा। ये दसरथ के पुत्र हैं। लक्ष्मण जी कहते हैं भैया ये तो अपने पिताजी को जानती हैं देखूं की कौन हैं?
राम जी कहते हैं नही लक्ष्मण ।
फिर वो कहती हैं एक राम हैं और एक लक्ष्मण हैं। राम जी की माँ कौसल्या हैं और लक्ष्मण की सुमित्रा है।
अब लक्ष्मण बोले की भैया ये तो अपने नाम और माता का नाम भी जानती हैं। अब तो देखना ही पड़ेगा।
भगवान बोले सावधान रहना ऊपर बिलकुल मत देखना। क्योंकि मर्यादा नही हैं ना।
तभी एक जनकपुर की मिथलानी बोली की हमे लगता हैं ये दोनों भाई बेहरे हैं। हम इतना बोल रही हैं ये हमारी ओर देख ही नही रहे हैं। तभी दूसरी बोली की मुझे लगता हैं की बेहरे ही नही गूंगे भी हैं। क्योंकि ये आपस में बात भी नही कर रहे हैं इशारे ही कर रहे हैं।
लक्ष्मण जी बोले की प्रभु अब इज्जत बहुत खराब हो रही है। हमे गूंगा, बहरा बना दिया है। रामजी आप एक नजर ऊपर डाल दो। तभी भगवान ने एक नजर उन पर डाली हैं और मिथिलापुर के नर-नारियां, बालक, वृद्ध सब निहाल हो गए हैं। सबने भगवान के रूप रस का पान किया है।
इसके बाद भगवान ने वह स्थान देखा हैं जहाँ पर धनुष यज्ञ का कार्यक्रम होगा। बहुत लंबा-चौड़ा सुंदर ढाला हुआ पक्का आँगन था। चारों ओर सोने के बड़े-बड़े मंच बने थे, जिन पर राजा लोग बैठेंगे। उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मंडलाकार घेरा सुशोभित था।
नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को यज्ञशाला की रचना दिखला रहे हैं। श्री रामजी भक्ति के कारण धनुष यज्ञ शाला को आश्चर्य के साथ देख रहे हैं। इस प्रकार सब कौतुक देखकर वे गुरु के पास चले। अगर देर हो गई तो गुरूजी नाराज हो जायेंगे। फिर भगवान ने कोमल, मधुर और सुंदर बातें कहकर बालकों को जबर्दस्ती विदा किया॥
फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे। भगवान ने संध्यावंदन किया है। फिर रात्रि के 2 प्रहर तक भगवान की प्राचीन कथाओं को कहा है और फिर मुनि के चरण दबाये हैं। तब श्रेष्ठ मुनि ने जाकर शयन किया। मुनि के बार बार कहने पर भगवान भी सोने चले गए हैं।
कथा जारी रहेगी