संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
जब भरत आये हैं तो सबसे पहले ककई के महल में गए हैं। जबकि मर्यादा तो ये कहती हैं की पहले माँ कौसल्या के पास जाना चाहिए। इसका कारण है -क्योंकि राम हमेशा केकई के महल में रहते थे क्योंकि ककई से बहुत प्रेम था और जब राम ककई के महल में हैं तो राजा दशरथ भी वहीँ रहते थे।
फिर तीनों माताएं भी वहीं रहती थी। और जब सब यहीं है तो लक्ष्मण भी यहीं रहते थे। आज भरत ने सोचा की मैं माता के महल में जाता हूँ तो मुझे सब वहीँ मिल जायेंगे। ये सोचकर केकई के महल में आये हैं।
ककई को महाराज के जाने का दुःख नही है बल्कि पुत्र के आने की ख़ुशी हो रही है। आरती की थाली लेकर खड़ी हैं। जैसे ही भरत ने माता का वेश देखा है तो मानो झकजोर दिया है भरत को। समझ गए है अब पिताजी स्वर्ग सिधार गए हैं।
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥
भरतजी ने कहा- कहो, पिताजी कहाँ हैं? मेरी सब माताएँ कहाँ हैं? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण कहाँ हैं?
ककई कहती है- बेटा, इनमे से तुम्हे कोई नही दिखेगा। मैंने बिगड़ती बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हुई। पर विधाता ने बीच में जरा सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोक को पधार गए।
भरत यह सुनते ही विषाद के मारे बेहाल हो गए। और जमीं पर तात! तात! करते हुए गिर पड़े। अपने आप को धिक्कारते हैं की अंतिम समय में पिताजी में आपकी सेवा नही कर पाया। मैं आपको स्वर्ग के लिए चलते समय देख भी न सका। फिर धीरज धरकर बोलते हैं – माता! पिता के मरने का कारण तो बताओ?
कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से आखिर तक खुश होकर सुना दी।
श्री रामचन्द्रजी का वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया और हृदय में इस सारे अनर्थ का कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर ज़िंदा लाश की तरह हो गए। भरत सोच रहे हैं की ये सब मेरे कारण हुआ है।
पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही हो। ककई कहती है भरत तुम चिंता छोड़ दो और राज्य भोगो।
उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लम्बी साँस लेते हुए कहा- पापिनी! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया। यदि तेरी ऐसी ही अत्यन्त बुरी इच्छा थी, तो तूने जन्म देते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है और मछली के जीने के लिए पानी को उलीच डाला! मुझे इनता अच्छा सूर्य वंश मिला, दशरथ जैसे पिताजी और राम लक्ष्मण जैसे भाई मिले लेकिन मेरा दुर्भाग्य तो देख मुझे तेरे जैसी माँ मिली।
जब तेरे ह्रदय में बुरा विचार आया तो तेरे ह्रदय के टुकड़े-टुकड़े क्यों नही हो गए? वरदान माँगते समय तेरे मन में कुछ भी पीड़ा नहीं हुई? तेरी जीभ गल नहीं गई? तेरे मुँह में कीड़े नहीं पड़ गए? राजा ने तेरा विश्वास कैसे कर लिया? तू कौन है? मुझे सच-सच कह! तू जो है, सो है, अब मुँह में स्याही पोतकर उठकर मेरी आँखों की ओट में जा बैठ॥
भरत जी महाराज ने यहाँ तक कह दिया। तूने जग में ऐसा काम कर दिया है की आज के बाद कोई भी पिता अपनी बेटी का नाम ककई नही रखेगा। विधाता ने मुझे श्री रामजी से विरोध करने वाले तेरे हृदय से उत्पन्न किया। मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है? मैं व्यर्थ ही तुझे कुछ कहता हूँ।
माता की कुटिलता सुनकर शत्रुघ्नजी के सब अंग क्रोध से जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता। उसी समय वो कुबरी वहाँ आई। उसे देखकर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्नजी क्रोध में भर गए। मानो जलती हुई आग को घी की आहुति मिल गई हो। उन्होंने जोर से तककर कूबड़ पर एक लात जमा दी। वह चिल्लाती हुई मुँह के बल जमीन पर गिर पड़ी। उसका कूबड़ टूट गया, कपाल फूट गया, दाँत टूट गए और मुँह से खून बहने लगा।
वह कराहती हुई बोली-हाय दैव! मैंने क्या बिगाड़ा? जो भला करते बुरा फल पाया।
उसकी यह बात सुनकर शत्रुघ्नजी उसे पकड़-पकड़कर घसीटने लगे। तब दयानिधि भरतजी ने उसको छुड़ा दिया और दोनों भाई कौसल्याजी के पास गए॥
कौसल्या भरत संवाद
अब भरत जी माता कौसल्या के पास गए हैं- भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गए और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े॥
जब माँ को होश आया है तो माता ने भरतजी को गोद में बैठा लिया और उनके आँसू पोंछकर कोमल वचन बोलीं- है भरत! तुम धीरज रखो। किसी को दोष मत दो। तेरे रघुनन्दन वन में तो गए हैं पर दुखी होकर नही गए प्रसन्न होकर गए हैं। तू बिलकुल चिंता मत कर भरत। और तेरे पिताजी को जाना ही था।
एक दिन शरीर तो जाता ही है। और उनका तो जीवन-मरण सफल हो गया। क्योंकि वो जिए तो राम के लिए और मरे भी तो राम के लिए। भरत, शत्रुघ्न दोनों भाई विकल होकर विलाप करने लगे। तब कौसल्याजी ने उनको हृदय से लगा लिया। अनेकों प्रकार से भरतजी को समझाया। और रोते-रोते सारी रात बीत गई।
आप सब सोच रहे होंगे इतना सब हो गया पर भरत जी कहाँ थे अब तक? मन में शंका होती है? और एक दो दिन के लिए नही 12 साल हो गए हैं।
मिथिला में जिस समय भगवान का और तीनों कुमारों का विवाह हो चुका था। वैदिक रीति के बाद लोक रीति होती है। मिथिला की माताएं और बहनें लोक रीति कर रही थी। आपस में बातें कर रही थी और भरत जी सुन रहे थे।
तो एक बोलती है की देखो, – अब थोड़े दिन बाद हमारी सीता-राम के साथ गद्दी पर बैठेगी। तभी एक दूसरी बोली की वाह जी वाह! ऐसा क्यों होगा?
तब पहले वाली बोली की बड़े तो राम है इसलिए राम ही गद्दी पर बैठेंगे। और हमारी सीता वामांग में बैठेगी।
तो दूसरी बोली की तुमको मालूम नही क्या , जब ककई का विवाह महाराज दशरथ के साथ हुआ था तो ककई के पिता ने महाराज दशरथ से वचन लिया था की जो ककई का बेटा होगा वो ही गद्दी पर बैठेगा तभी मैं अपनी बेटी का विवाह तुम्हारे साथ करूँगा।
इसलिए तू अपनी सोच अपने पास रख , मुझे तो लगता है भरत गद्दी पर बैठेंगे और साथ में मांडवी बैठेगी।
जैसे ही भरत ने सुना तो सोचने लगे की ये क्या हो रहा है भैया राम के रहते भरत गद्दी पर बैठेगा? इतना बड़ा अनर्थ। राम राज्य में उनके शासन में सबसे बड़ी बाधा मैं बनूँगा?
जब विवाह करके आये तो ककई के पिता की तबियत खराब हुई थी। ककई के भाई ने खबर भिजवाई थी की कोई मिलने, देखने के लिए आये। ककई तो खुद जाना चाहती थी पर भरत ने कहा की माँ! आप मुझे जाने दो। मैं जाऊँगा। और भरत जी महाराज गए थे और 12 साल से वहीं रह रहे थे।
साथ में ये संकल्प ले लिया था जब राम गद्दी पर बैठेंगे तो ही मैं लौटकर आऊंगा। क्योंकि अगर मैं यहाँ अयोध्या में रहा तो बाधा खड़ी हो जाएगी रघुनन्दन के लिए। इसलिए भरत जी ननिहाल में रह रहे थे।