May 25, 2025 10:02 am

श्री राम- भरत संवाद

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संक्षिप्त रामायण(भार्गव)

साधारण मिलन नही(अध्याय71)

ये कोई साधारण मिलन नही है। एक ओर लक्ष्मण हैं, एक ओर शत्रुघ्न हैं, एक ओर केवट हैं, और एक ओर निषादराज हैं। आज चार प्रेमियों के बीच दो महाप्रेमियों का मिलन हो रहा है।

गोस्वामी जी कह रहे हैं उस श्रेष्ठ प्रेम को कौन प्रकट करे? भरतजी और श्री रघुनाथजी का प्रेम अगम्य है, जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का भी मन नहीं जा सकता। उस प्रेम को मैं कुबुद्धि किस प्रकार कहूँ!

भरतजी और श्री रामचन्द्रजी के मिलने का ढंग देखकर देवता भयभीत हो गए, उनकी धुकधुकी धड़कने लगी। गुरु बृहस्पतिजी ने उन्हें फिर समझाया है।

फिर श्री रामजी प्रेम के साथ शत्रुघ्न से मिलकर तब केवट से मिले। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बड़े ही प्रेम से मिले॥

छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरतजी प्रेम में उमँगकर सीताजी के चरण कमलों की रज सिर पर धारण कर बार-बार प्रणाम करने लगे। सीताजी ने उन्हें उठाकर उनके सिर को अपने करकमल से स्पर्श कर उन दोनों को बैठाया॥ और माँ जानकी जी ने आशीर्वाद दिया है। सीताजी को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर भरतजी सोचरहित हो गए और उनके हृदय का कल्पित भय जाता रहा॥

फिर केवट और निषादराज धीरज धर और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनती करने लगा- नाथ! मुनिनाथ वशिष्ठजी के साथ सब माताएँ, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मंत्री- सब आपके वियोग से व्याकुल होकर आए हैं॥

जैसे ही भगवान ने ये सुना तो दर्शन करने के लिए दौड़े और गुरुजी के दर्शन करके लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी प्रेम में भर गए और दण्डवत प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने दौड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रेम में उमँगकर वे दोनों भाइयों से मिले॥

फिर निषादराज ने वसिष्ठ जी को दूर से ही प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबर्दस्ती हृदय से लगा लिया।

इसके बाद सबसे पहले रामजी कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उसकी बुद्धि को तर कर दिया। फिर श्री रघुनाथजी सब माताओं से मिले। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर संतोष कराया कि हे माता! जगत ईश्वर के अधीन है। किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए॥

फिर राम-लक्ष्मण जी की सभी नगरवासियों और गुरुमा सबसे मुलाकात हुई है। सीताजी ने सभी के चरणों की अलग-अलग वंदना करके अपने हृदय को प्रिय लगने वाले आशीर्वाद पाए।

जब सुकुमारी सीताजी ने सब सासुओं को देखा, तब उन्होंने सहमकर अपनी आँखें बंद कर लीं॥ सासुओं की बुरी दशा देखकर सीताजी को बहुत दुःख हुआ है। तब जानकीजी हृदय में धीरज धरकर नेत्रों में जल भरकर सबके पैरों लग-लगकर अत्यन्त प्रेम से मिल रही हैं और सब सासुएँ स्नेहवश हृदय से आशीर्वाद दे रही हैं कि तुम सदा सौभाग्यवती रहो॥

फिर वशिष्ठजी ने राजा दशरथजी के स्वर्ग गमन की बात सुनाई। जिसे सुनकर रघुनाथजी ने दुःसह दुःख पाया और अपने प्रति उनके स्नेह को उनके मरने का कारण विचारकर धीरधुरन्धर श्री रामचन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल हो गए॥ वज्र के समान कठोर, कड़वी वाणी सुनकर लक्ष्मणजी, सीताजी और सब रानियाँ विलाप करने लगीं। सारा समाज शोक से अत्यन्त व्याकुल हो गया! मानो राजा आज ही मरे हों।

फिर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने श्री रामजी को समझाया। समाज सहित श्रेष्ठ नदी मंदाकिनीजी में स्नान किया। मुनि वशिष्ठजी के कहने पर सबने निर्जल व्रत रखा है।

श्री राम- भरत संवाद

एक भी युक्ति भरतजी के मन में न ठहरी। सोचते ही सोचते रात बीत गई। भरतजी प्रातःकाल स्नान करके और प्रभु श्री रामचन्द्रजी को सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वशिष्ठजी ने उनको बुलवा भेजा।

भरतजी गुरु के चरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गए। उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मंत्री आदि सभी सभासद आकर जुट गए।

हे सभासदों! हे सुजान भरत! सुनो। सूर्यकुल के सूर्य महाराज श्री रामचन्द्र धर्मधुरंधर और स्वतंत्र भगवान हैं। वे गुरु, पिता और माता के वचनों के अनुसार चलने वाले हैं। अतएव श्री रामजी की आज्ञा और रुख रखने में ही हम सबका हित होगा।

श्री रामजी का राज्याभिषेक सबके लिए सुखदायक है। मंगल और आनंद का मूल यही एक मार्ग है।श्री रघुनाथजी अयोध्या किस प्रकार चलें? विचारकर कहो, वही उपाय किया जाए।

सभी ने मुनि की बातों को सुना पर कोई उत्तर नही दे पाया तब भरत जी हाथ जोड़ कर बोले – सूर्यवंश में एक से एक अधिक बड़े बहुत से राजा हो गए हैं। सभी के जन्म के कारण पिता-माता होते हैं और शुभ-अशुभ कर्मों को विधाता देते हैं।

भरत जी अब प्रेम में डूबते जा रहे हैं। भरत जी कहते हैं मैं गद्दी पर नही बैठूंगा। बड़े भाई के होते हुए छोटा भाई कैसे बैठ जाये और जबकि भाई भगवान हो। मैं तो जब तक जियूँगा अपने राम की सेवा ही करूँगा। राम विमुख को तो स्वप्न में भी सिद्धि नहीं मिलती।

फिर गुरुदेव कहते हैं की भरत तुम्हारे प्रेम में मैं कहीं खुद को भुला ना बैठूं। कहीं मेरा ज्ञान धरा का धरा ना रह जाये। गुरुदेव कहते हैं अतः तुम दोनों भाई वन को जाओ और लक्ष्मण, सीता और श्री रामचन्द्र को लौटा दिया जाए। सुंदर वचन सुनकर दोनों भाई हर्षित हो गए।

लेकिन रानियां ये बात भी सुनकर रोने लगी क्योंकि राम-लक्ष्मण वन में रहें या भरत-शत्रुघ्न, दो पुत्रों का वियोग तो रहेगा ही।

देखिये भरत जी अब कितना सुंदर कहते हैं- मुनि ने जो कहा, वह एकदम उचित है लेकिन चौदह वर्ष की कोई अवधि नहीं मैं जन्मभर वन में वास करूँगा। मेरे लिए इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है।

भरतजी के वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभा सहित मुनि वशिष्ठजी सभी अपनी देह की सुध-बुध खो बैठे। मुनि वशिष्ठजी की अन्तरात्मा को भरतजी बहुत अच्छे लगे। फिर मुनि कहते हैं- राम! आप सबके हृदय के भीतर बसते हैं और सबके भले-बुरे भाव को जानते हैं, जिसमें पुरवासियों का, माताओं का और भरत का हित हो, वही उपाय बतलाइए।

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