संक्षिप्त रामायण
राम द्वारा खर दूषण वध(अध्याय87)
खर दूषण 14000 सैनिक लेके भगवान के साथ युद्ध करने आये हैं। सभी असुर मायावी हैं और भगवान के साथ युद्ध कर रहे हैं। देवता यह देखकर डरते हैं कि प्रेत चौदह हजार हैं और अयोध्यानाथ श्री रामजी अकेले हैं। देवता और मुनियों को भयभीत देखकर माया के स्वामी प्रभु ने एक बड़ा कौतुक किया, जिससे शत्रुओं की सेना एक-दूसरे को राम रूप देखने लगी और आपस में ही युद्ध करके लड़ मरी।
सब यही राम है, इसे मारो इस प्रकार राम-राम कहकर शरीर छोड़ते हैं और निर्वाण पद पाते हैं। कृपानिधान श्री रामजी ने यह उपाय करके क्षण भर में शत्रुओं को मार डाला।
खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने जाकर रावण को भड़काया और खूब रोयी है।
लंकापति रावण ने कहा- अपनी बात तो बता, किसने तेरे नाक-कान काट लिए? वह बोली- अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र, जो पुरुषों में सिंह के समान हैं, वन में शिकार खेलने आए हैं। मुझे उनकी करनी ऐसी समझ पड़ी है कि वे पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर देंगे।
वे शोभा के धाम हैं, राम ऐसा उनका नाम है। उनके साथ एक तरुणी सुंदर स्त्री है। उस स्त्री जितनी सुंदर नारी कहीं भी नही है। उन्हीं के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान काट डाले। मैं तेरी बहिन हूँ, यह सुनकर वे मेरी हँसी करने लगे। फिर खर-दूषण सहायता करने आए। लेकिन उन्होंने खर-दूषन और त्रिशिरा का वध कर डाला।
अब रावण ने अपनी बहन शूपर्णखा को बहुत समझाया है और रावण ने एक योजना बनाई है।
इधर लक्ष्मणजी जब कंद-मूल-फल लेने के लिए वन में गए, तब (अकेले में) कृपा और सुख के समूह श्री रामचंद्रजी हँसकर जानकीजी से बोले- सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास करो।
जैसे ही राम जी ने कहा- सीताजी प्रभु के चरणों को हृदय में धरकर अग्नि में समा गईं। और सीताजी ने अपनी ही छाया मूर्ति वहाँ रख दी, जो उनके जैसे ही शील-स्वभाव और रूपवाली तथा वैसे ही विनम्र थी। भगवान ने जो कुछ लीला रची, इस रहस्य को लक्ष्मणजी ने भी नहीं जाना। लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना।
राम द्वारा मारीच वध
अब रावण मारीच के पास आया है। मारीच ने रावण से पूछा- आपका मन किस कारण इतना अधिक व्यग्र है और आप अकेले आए हैं?
भाग्यहीन रावण ने सारी कथा अभिमान सहित उसके सामने कही और फिर कहा- तुम छल करने वाले कपटमृग बनो, जिस उपाय से मैं उस राजवधू को हर लाऊँ।
तब मारीच ने कहा- वे मानव कोई साधारण मानव नही है साक्षात ईश्वर हैं। उनसे वैर न कीजिए। यही राजकुमार मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए गए थे। उस समय श्री रघुनाथजी ने बिना फल का बाण मुझे मारा था, जिससे मैं क्षणभर में सौ योजन पर आ गिरा। उनसे वैर करने में भलाई नहीं है। जिसने ताड़का और सुबाहु को मारकर शिवजी का धनुष तोड़ दिया और खर, दूषण और त्रिशिरा का वध कर डाला, ऐसा प्रचंड बली भी कहीं मनुष्य हो सकता है?
रावण ने कहा मुर्ख- तू इनकी बड़ाई कर रहा है। अगर तूने मेरी बात नही मानी तो मैं तुझे मृत्युदंड दूंगा।
अब मारीच ने सोचा की मेरी मौत निश्चित है तो क्यों ना मैं इस पापी के हाथों मरने की वजाय श्री राम चन्द्र जी के हाथों अपने प्राण त्याग दूं।
हृदय में ऐसा समझकर वह रावण के साथ चला। और वह मन ही मन सोचने लगा- आज तो मैं भगवान का दर्शन पाउँगा। और आज मुझे भगवान के हाथों मरकर भगवान का धाम भी मिलेगा। वह अत्यन्त ही विचित्र था, कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता। सोने का शरीर मणियों से जड़कर बनाया था।
जब रावण उस वन के निकट पहुँचा, तब मारीच कपटमृग बन गया!
सीताजी ने उस परम सुंदर हिरन को देखा, तो वे कहने लगीं- हे देव! कितना सुंदर मृग है! आप इस मृग को मेरे लिए ले आइये।
हिरन को देखकर श्री रामजी जी ने कहा ठीक है सीता! अभी ले आता हूँ और कमर में फेंटा बाँधा और हाथ में धनुष लेकर उस पर सुंदर बाण चढ़ाया। फिर प्रभु ने लक्ष्मणजी को समझाकर कहा- हे भाई! वन में बहुत से राक्षस फिरते हैं। तुम सीताजी की रखवाली करना।
श्री रामचन्द्रजी भी धनुष चढ़ाकर उसके पीछे दौड़े। भगवान की लीला देखिये जो माया भगवान के आधीन है। श्री रामजी माया से बने हुए मृग के पीछे दौड़ रहे हैं। वह कभी निकट आ जाता है और फिर दूर भाग जाता है। कभी तो प्रकट हो जाता है और कभी छिप जाता है।
फिर श्री रामचन्द्रजी ने निशाना साधकर कठोर बाण मारा, जिसके लगते ही वह घोर शब्द करके पृथ्वी पर गिर पड़ा।
बाहर से तो ये लक्ष्मण लक्ष्मण चिल्ला रहा है लेकिन अंदर राम-राम जप रहा है।
इधर जब सीता जी ने लक्ष्मण-लक्ष्मण चिल्लाने की आवाज सुनी तो सीता जी ने सोचा की रामजी संकट में हैं। वे बहुत ही भयभीत होकर लक्ष्मणजी से कहने लगीं। तुम शीघ्र जाओ, तुम्हारे भाई बड़े संकट में हैं।
लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे माता! सुनो, श्री रामजी क्या कभी स्वप्न में भी संकट में पड़ सकते हैं? इस पर जब सीताजी कुछ मर्म वचन कहने लगीं, तब भगवान की प्रेरणा से लक्ष्मणजी का मन भी चंचल हो उठा। और लक्ष्मण ने कुटिया के चारों और लक्ष्मण रेखा खींच दी और कहा- माता! चाहे कुछ भी हो जाये जब तक हम ना लौटे आप इस रेखा को पार न करियेगा।
और लक्ष्मण जी राम जी को ढूंढने चले गए।