संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
सीता हनुमान मिलन कहानी – हनुमान जी का समुद्र पार जाना
अब तक आपने पढ़ा की सीता माता की खोज करते हुए सभी समुद्र तट पर आये हैं। सम्पाती ने सीता जी का पता बताता है। और सभी हनुमान जी से जाने के लिए कहते हैं। और यहाँ से सुंदरकांड प्रारम्भ हुआ है।
तुलसीदास जी ने सुंदर भगवान श्री राम की स्तुति की है। फिर हनुमान जी को वंदन किया है।
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।
तुल बल के धाम, सोने के पर्वत के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्जी को मैं प्रणाम करता हूँ।
जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए। तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई।
जाम्बवान् के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्जी के हृदय को बहुत ही भाए। हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना।
जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी। यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।
जब तक मैं सीताजी को देखकर न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान्जी हर्षित होकर चले।
समुद्र के किनारे पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान जी कूदकर उसके ऊपर चढ़ गए। और बार-बार श्री राम श्री राम का स्मरण किया और हनुमान जी ने छलांग लगा दी। जिस पर्वत पर हनुमान्जी पैर रखकर उछले, वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। और हनुमान जी ऐसे चले हैं जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्जी चले।
रस्ते में मैनाक पर्वत आये हैं और हाथ जोड़कर हनुमान जी कहते हैं- हनुमान जी आप थक गए होंगे इसलिए थोड़ा विश्राम कर लीजिये।
हनुमान जी कहते हैं – राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम। श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ
सुरसा हनुमान
अब देवताओं ने हनुमान जी की परीक्षा लेने के लिए सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा। उसने आकर हनुमान्जी से यह बात कही- आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है।
हनुमान जी कहते हैं – माता! रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ, तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा और तुम मुझे खा लेना।
लेकिन सुरसा ने जाने से मना कर दिया। हनुमान्जी ने कहा- तो फिर मुझे मुह खोलकर खा लो॥
उसने योजनभर मुँह फैलाया। तब हनुमान्जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान्जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए॥ जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान्जी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन मुख किया। तब हनुमान्जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया॥ और उसके मुख में घुसकर फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे।
अब ये बोली- राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान। आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥
तुम श्री रामचंद्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्जी हर्षित होकर चले॥
समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। ये जीव-जंतुओं की पानी में परछाई देखकर उन्हें पकड़ लेती थी और खा जाया करती थी। उसने हनुमान्जी की भी परछाई पकड़ ली। हनुमान्जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया॥ और उसे मार कर समुद्र के पार गए। अब हनुमान जी लंका पहुंच गए हैं।





