June 15, 2025 8:53 am

राम और विभीषण

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संक्षिप्त रामायण(भार्गव)

राम और विभीषण

हे तात! नरक में रहना वरन्‌ अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग न दे।हे रघुनाथजी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूँ, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है।तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम। जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।

तब तक जीव की कुशल नहीं और न स्वप्न में भी उसके मन को शांति है, जब तक वह शोक के घर काम को छोड़कर श्री रामजी को नहीं भजता।तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना। जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा।

लोभ, मोह, मत्सर, मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्री रघुनाथजी हृदय में नहीं बसते।

मैं अत्यंत नीच स्वभाव का राक्षस हूँ। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया। हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी! मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा। श्री रामजी ने कहा हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं।

कोई मनुष्य जड़-चेतन जगत्‌ का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए, और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ।

माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है, जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है। ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है।

हे लंकापति! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो। सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें।

और सभी राम जी की जय जयकार लगाने लगे। और विभीषण जी ने प्रभु के चरण कमल पकड़ लिए। और भगवान से भक्ति मांगी है।

भगवान ने भी एवमस्तु कहकर रणधीर प्रभु श्री रामजी ने तुरंत ही समुद्र का जल माँगा। ऐसा कहकर श्री रामजी ने उनका राजतिलक कर दिया। आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई।

शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही संपत्ति श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी।

ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सींग-पूँछ के पशु हैं। अपना सेवक जानकर विभीषण को श्री रामजी ने अपना लिया।

लक्ष्मण चिट्ठी रावण के लिए

अब रामजी बोले हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए?

विभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रों को सोख सकता है, तथापि नीति ऐसी कही गई है उचित यह होगा कि जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए॥श्री रामजी ने कहा हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी।लक्ष्मणजी ने कहा हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए और समुद्र को सुखा डालिए। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥यह सुनकर श्री रघुवीर हँसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो। फिर समुद्र के पास गए। उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए। इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥

सब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीव के पास ले आए॥ सुग्रीव ने कहा- सब वानरों! सुनो, राक्षसों के अंग-भंग करके भेज दो।

वानरों ने दूतों को बाँधकर सेना के चारों ओर घुमाया॥ वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है॥

यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निकट बुलाया। उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिया। और उनसे कहा रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना और कहना- कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार। सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥

उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार संदेश कहना कि सीताजी को देकर उनसे मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया।

लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए।

श्री रामजी का यश कहते हुए वे लंका में आए। दशमुख रावण ने हँसकर बात पूछी- अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता?

दूतों ने रावण से सब कह दिया जो जिस प्रकार वहां घटित हुआ था। और कहा- श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है।

रावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर पढ़वाने लगा जिस पर लिखा था- अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर। श्री रामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा॥ या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतिंगा हो जा दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर।

पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी वाग्विलास करता है।

दूतों ने भी बहुत समझाया है पर रावण का काल उसकी बुद्धि फेरे हुए है।

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