संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
अंगद और श्री राम कहानी
अब तक आपने पढ़ा की राम सेना लंका पहुंच गई है। ये सब देखकर मंदोदरी ने एक बार फिर रावण को समझाया है और राम महिमा बताई है। लेकिन घमंडी रावण का काल उसे अपनी ओर खिंच रहा हैं।
प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क्या उपाय करना चाहिए?
जाम्बवान् ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाकर कहा- हे सर्वज्ञ सब कुछ जानने वाले! ! सुनिए! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अंगद को दूत बनाकर भेजा जाए!
यह अच्छी सलाह सबके मन में जँच गई। कृपा के निधान श्री रामजी ने अंगद से कहा- हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिए लंका जाओ। तुमको बहुत समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो।
प्रभु की आज्ञा सिर चढ़कर और उनके चरणों की वंदना करके अंगदजी उठे और बोले- हे भगवान् श्री रामजी! आप जिस पर कृपा करें, वही गुणों का समुद्र हो जाता है। स्वामी सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं, यह तो प्रभु ने मुझ को आदर दिया है जो मुझे अपने कार्य पर भेज रहे हैं। इस प्रकार भगवान की वंदना करके अंगद जी चले हैं।
लंका में प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेंट हो गई, जो वहाँ खेल रहा था। बातों ही बातों में दोनों में झगड़ा बढ़ गया दोनों ही अतुलनीय बलवान् थे और फिर दोनों की युवावस्था थी। उसने अंगद पर लात उठाई। अंगद ने वही पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका मार गिराया।
रावण पुत्र की मृत्यु जानकर और राक्षसों को भय के मारे भागते देखकर नगरभर में कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है। सब अत्यंत भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा। वे बिना पूछे ही अंगद को रावण के दरबार की राह बता देते हैं।
श्री रामजी के चरणकमलों का स्मरण करके अंगद रावण की सभा के द्वार पर गए। रावण को सूचित किया गया।
रावण हँसकर बोला- बुला लाओ, देखें कहाँ का बंदर है। आज्ञा पाकर बहुत से दूत दौड़े और वानरों में हाथी के समान अंगद को बुला लाए।
अंगद ने रावण को ऐसे बैठे हुए देखा, जैसे कोई प्राणयुक्त सजीव काजल का पहाड़ हो! अत्यंत बलवान् बाँके वीर बालिपुत्र अंगद सभा में गए, वे मन में जरा भी नहीं झिझके। अंगद को देखते ही सब सभासद् उठ खड़े हुए। यह देखकर रावण के हृदय में बड़ा क्रोध हुआ।
अंगद रावण मुलाकात
रावण ने कहा– अरे बंदर! तू कौन है? अंगद ने कहा- हे दशग्रीव! मैं श्री रघुवीर का दूत हूँ। मेरे पिता से और तुमसे मित्रता थी, इसलिए हे भाई! मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूँ।
राजमद से या मोहवश तुम जगज्जननी सीताजी को हर लाए हो। सीता जी को लौटा दो। प्रभु श्री रामजी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे। तुम रामजी के शरणागत हो जाओ।
रावण ने कहा- अरे बंदर के बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने बाप का नाम तो बता। किस नाते से मित्रता मानता है?
अंगद ने कहा- मेरा नाम अंगद है, मैं बालि का पुत्र हूँ। उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी? अंगद का वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया और बोला- हाँ, मैं जान गया मुझे याद आ गया, बालि नाम का एक बंदर था।
अरे अंगद! तू ही बालि का लड़का है? गर्भ में ही क्यों न नष्ट हो गया तू? व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुँह से तपस्वियों का दूत कहलाया!
अब बालि की बता, वह आजकल कहाँ है? तब अंगद ने हँसकर कहा- दस कुछ दिन बीतने पर स्वयं ही बालि के पास जाकर, अपने मित्र को हृदय से लगाकर, उसी से कुशल पूछ लेना।
वानर अंगद की कठोर वाणी सुनकर रावण आँखें तरेरकर तिरछी करके बोला- अरे दुष्ट! मैं तेरे सब कठोर वचन इसीलिए सह रहा हूँ कि मैं नीति और धर्म को जानता हूँ उन्हीं की रक्षा कर रहा हूँ
अंगद ने कहा- तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है। वह यह कि तुमने पराई स्त्री की चोरी की है! और दूत की रक्षा की बात तो अपनी आँखों से देख ली। ऐसे धर्म के व्रत को धारण पालन करने वाले तुम डूबकर मर नहीं जाते! अपनी बहन शूर्पणखा को भूल गए जिसके नाक कान काटे गए थे।
रावण ने कहा- अरे जड़ जन्तु वानर! व्यर्थ बक-बक न कर, अरे मूर्ख! मेरी भुजाएँ तो देख। अरे अंगद! सुन, तेरी सेना में बता, ऐसा कौन योद्धा है, जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो रहा है और उसका छोटा भाई उसी के दुःख से दुःखी और उदास है। और सुग्रीव, दोनों नदी तट के वृक्ष हो रहा मेरा छोटा भाई विभीषण, सो वह भी बड़ा डरपोक है। मंत्री जाम्बवान् बहुत बूढ़ा है। वह अब लड़ाई में क्या चढ़ उद्यत हो सकता है? नल-नील तो शिल्प-कर्म जानते हैं वे लड़ना क्या जानें?। हाँ, एक वानर जरूर महान् बलवान् है, जो पहले आया था और जिसने लंका जलाई थी।
यह वचन सुनते ही बालि पुत्र अंगद ने कहा- हे राक्षसराज! सच्ची बात कहो! क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया? प्रीति और वैर बराबरी वाले से ही करना चाहिए, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेंढकों को मारे, तो क्या उसे कोई भला कहेगा? यद्यपि तुम्हें मारने में श्री रामजी की लघुता है और बड़ा दोष भी है तथापि हे रावण! सुनो, क्षत्रिय जाति का क्रोध बड़ा कठिन होता है।
वक्रोक्ति रूपी धनुष से वचन रूपी बाण मारकर अंगद ने शत्रु का हृदय जला दिया।
तब रावण हँसकर बोला- बंदर में यह एक बड़ा गुण है कि जो उसे पालता है, उसका वह अनेकों उपायों से भला करने की चेष्टा करता है। हे अंगद! तेरी जाति स्वामिभक्त है फिर भला तू अपने मालिक के गुण इस प्रकार कैसे न बखानेगा?
अंगद कहते हैं – मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ़ है।
रावण बोला- अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है, तभी तो तू बाप को खा गया।
अंगद ने कहा- पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता, परन्तु अभी तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझ में आ गई! अरे नीच अभिमानी! बालि के निर्मल यश का पात्र कारण जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता। मैंने सुना है बहुत दिनों तक रावण बालि की काँख में रहा था। श्री रामजी से वैर करने पर तेरा ऐसा हाल होगा कि तेरे सिर समूह श्री रामजी के बाण लगते ही वानरों के आगे पृथ्वी पर पड़ेंगे,और रीछ-वानर तेरे उन गेंद के समान अनेकों सिरों से चौगान खेलेंगे।
रावण बोला- अरे मूर्ख! कुंभकर्ण- ऐसा मेरा भाई है, इन्द्र का शत्रु सुप्रसिद्ध मेघनाद मेरा पुत्र है! और मेरा पराक्रम तो तूने सुना ही नहीं कि मैंने संपूर्ण जड़-चेतन जगत् को जीत लिया है!
यदि तेरा मालिक, जिसकी गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है, संग्राम में लड़ने वाला योद्धा है- तो फिर वह दूत किसलिए भेजता है? शत्रु से प्रीति सन्धि करते उसे लाज नहीं आती? पहले कैलास का मथन करने वाली मेरी भुजाओं को देख। फिर अरे मूर्ख वानर! अपने मालिक की सराहना करना।
अंगद ने कहा- अरे रावण! तेरे समान लज्जावान् जगत् में कोई नहीं है।सिर काटने और कैलास उठाने की कथा चित्त में चढ़ी हुई थी, इससे तूने उसे बीसों बार कहा। अरे मंद बुद्धि! सुन, अब बस कर। सिर काटने से भी क्या कोई शूरवीर हो जाता है? अरे दुष्ट! अब बतबढ़ाव मत कर, मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूत की तरह सन्धि करने नहीं आया हूँ। श्री रघुवीर ने ऐसा विचार कर मुझे भेजा है- कृपालु श्री रामजी बार-बार ऐसा कहते हैं कि स्यार के मारने से सिंह को यश नहीं मिलता।
अरे मूर्ख! प्रभु के उन वचनों को मन में समझकर याद करके ही मैंने तेरे कठोर वचन सहे हैं। नहीं तो तेरे मुँह तोड़कर मैं सीताजी को जबरदस्ती ले जाता। अरे अधम! देवताओं के शत्रु! तेरा बल तो मैंने तभी जान लिया, जब तू सूने में पराई स्त्री को हर चुरा लाया। तू राक्षसों का राजा और बड़ा अभिमानी है, परन्तु मैं तो श्री रघुनाथजी के सेवक सुग्रीव का दूत सेवक का भी सेवक हूँ।
यदि मैं श्री रामजी के अपमान से न डरूँ तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा करूँ कि- तुझे जमीन पर पटककर, तेरी सेना का संहार कर और तेरे गाँव को चौपट नष्ट-भ्रष्ट करके, अरे मूर्ख! तेरी युवती स्त्रियों सहित जानकीजी को ले जाऊँ। यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व बहादुरी नहीं है।
अरे दुष्ट! ऐसा विचार कर मैं तुझे नहीं मारता। अब तू मुझमें क्रोध न पैदा कर मुझे गुस्सा न दिला। अंगद के वचन सुनकर राक्षस राज रावण दाँतों से होठ काटकर, क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला- अरे नीच बंदर! अब तू मरना ही चाहता है! जिनके बल का तुझे गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्यों को तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं।
जब उसने श्री रामजी की निंदा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यंत क्रोधित हुए, वानर श्रेष्ठ अंगद बहुत जोर से कटकटाए शब्द किया और उन्होंने जोर से अपने दोनों हाथों को पृथ्वी पर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, जिससे बैठे हुए सभासद् गिर पड़े और भय रूपी पवन भूत से ग्रस्त होकर भाग चले।
रावण गिरते-गिरते सँभलकर उठा। उसके अत्यंत सुंदर मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़े। कुछ तो उसने उठाकर अपने सिरों पर सुधाकर रख लिए और कुछ अंगद ने उठाकर प्रभु श्री रामचंद्रजी के पास फेंक दिए।
क्रोधयुक्त रावण सबसे क्रोधित होकर कहने लगा कि- बंदर को पकड़ लो और पकड़कर मार डालो। रावण फिर बोला- इसे मारकर सब योद्धा तुरंत दौड़ो और जहाँ कहीं रीछ-वानरों को पाओ, वहीं खा डालो। और राम-लक्ष्मण को जीवित पकड़कर मेरे सामने लाओ।
युवराज अंगद क्रोधित होकर बोले- मैं तेरे दाँत तोड़ने में समर्थ हूँ। पर क्या करूँ? श्री रघुनाथजी ने मुझे आज्ञा नहीं दी। ऐसा क्रोध आता है कि तेरे दसों मुँह तोड़ डालूँ और तेरी लंका को पकड़कर समुद्र में डुबो दूँ।
अंगद की युक्ति सुनकर रावण मुस्कुराया और बोला- अरे मूर्ख! बहुत झूठ बोलना तूने कहाँ से सीखा? बालि ने तो कभी ऐसा गाल नहीं मारा। जान पड़ता है तू तपस्वियों से मिलकर लबार हो गया है।
श्री रामचंद्रजी के प्रताप को समझकर स्मरण करके अंगद क्रोधित हो उठे और उन्होंने रावण की सभा में प्रण करके दृढ़ता के साथ पैर जमा दिया। और कहा- अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा सके तो श्री रामजी लौट जाएँगे, मैं सीताजी को हार गया।
रावण ने कहा- हे सब वीरो! सुनो, पैर पकड़कर बंदर को पृथ्वी पर पछाड़ दो। इंद्रजीत मेघनाद आदि अनेकों बलवान् योद्धा जहाँ-तहाँ से हर्षित होकर उठे। वे पूरे बल से बहुत से उपाय करके झपटते हैं। पर पैर हिलता तक नहीं, तब सिर नीचा करके फिर अपने-अपने स्थान पर जा बैठ जाते हैं। यह देखकर शत्रु रावण का मद दूर हो गया!
अंगद का बल देखकर सब हृदय में हार गए। तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा । जब वह अंगद का चरण पकड़ने लगा, तब बालि कुमार अंगद ने कहा- मेरा चरण पकड़ने से तेरा बचाव नहीं होगा!
अरे मूर्ख- तू जाकर श्री रामजी के चरण क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनकर वह मन में बहुत ही सकुचाकर लौट गया। वह सिर नीचा करके सिंहासन पर जा बैठा। मानो सारी सम्पत्ति गँवाकर बैठा हो। श्री राम जी से विमुख रहने वाला शांति कैसे पा सकता है?
फिर अंगद ने अनेकों प्रकार से नीति कही। पर रावण नहीं माना, क्योंकि उसका काल निकट आ गया था।
शत्रु के बल का मर्दन कर, बल की राशि बालि पुत्र अंगदजी ने हर्षित होकर आकर श्री रामचंद्रजी के चरणकमल पकड़ लिए। और सब कह सुनाया।