संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
हनुमान और कुम्भकर्ण युद्ध
रीछ-वानर एक-एक बार में ही करोड़ों पहाड़ों के शिखरों से कुंभकर्ण पर प्रहार करते हैं, परन्तु इससे न तो उसका मन ही मुड़ा विचलित हुआ और न शरीर ही टाले टला।
तब हनुमान्जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और सिर पीटने लगा। फिर उसने उठकर हनुमान्जी को मारा। वे चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़े।
फिर उसने नल-नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया और दूसरे योद्धाओं को भी जहाँ-तहाँ पटककर डाल दिया। वानर सेना भाग चली। सुग्रीव समेत अंगदादि वानरों को मूर्छित करके फिर वह अपरिमित बल की सीमा कुंभकर्ण वानरराज सुग्रीव को काँख में दाबकर चला।
मारुति हनुमान्जी जागे और फिर वे सुग्रीव को खोजने लगे। सुग्रीव की भी मूर्च्छा दूर हुई। फिर से सुग्रीव का पैर पकड़कर उनको पृथ्वी पर पछाड़ दिया। फिर सुग्रीव ने बड़ी फुर्ती से उठकर उसको मारा और तब बलवान् सुग्रीव प्रभु के पास आए और बोले- कृपानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो।
रण के उत्साह में कुंभकर्ण काल बनकर चल रहा है। वह करोड़-करोड़ वानरों को एक साथ पकड़कर खाने लगा! वे उसके मुँह में इस तरह घुसने लगे मानो पर्वत की गुफा में टिड्डियाँ समा रही हों। सब योद्धा भाग खड़े हुए, वे लौटाए भी नहीं लौटते। आँखों से उन्हें सूझ नहीं पड़ता और पुकारने से सुनते नहीं!
राम और कुम्भकर्ण युद्ध
तब कमलनयन श्री रामजी बोले- हे सुग्रीव! हे विभीषण! और हे लक्ष्मण! सुनो, तुम सेना को संभालना। मैं इस दुष्ट के बल और सेना को देखता हूँ। प्रभु ने पहले तो धनुष का टंकार किया, जिसकी भयानक आवाज सुनते ही शत्रु दल बहरा हो गया। फिर सत्यप्रतिज्ञ श्री रामजी ने एक लाख बाण छोड़े। वे ऐसे चले मानो पंखवाले काल सर्प चले हों। जहाँ-तहाँ बहुत से बाण चले, जिनसे भयंकर राक्षस योद्धा कटने लगे।
उनके चरण, छाती, सिर और भुजदण्ड कट रहे हैं। बहुत से वीरों के सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं। घायल चक्कर खा-खाकर पृथ्वी पर पड़ रहे हैं। उत्तम योद्धा फिर संभलकर उठते और लड़ते हैं।
प्रभु के बाणों ने क्षण मात्र में भयानक राक्षसों को काटकर रख दिया। फिर वे सब बाण लौटकर श्री रघुनाथजी के तरकस में घुस गए।
कुंभकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि श्री रामजी ने क्षण मात्र में राक्षसी सेना का संहार कर डाला। तब वह महाबली वीर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने गंभीर सिंहनाद किया।
वह क्रोध करके पर्वत उखाड़ लेता है और जहाँ भारी-भारी वानर योद्धा होते हैं, वहाँ डाल देता है। बड़े-बड़े पर्वतों को आते देखकर प्रभु ने उनको बाणों से काटकर धूल के समान कर डाला।
फिर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष को तानकर बहुत से अत्यंत भयानक बाण छोड़े। वे बाण कुंभकर्ण के शरीर में घुसकर पीछे से इस प्रकार निकल जाते हैं कि उनका पता नहीं चलता, जैसे बिजलियाँ बादल में समा जाती हैं।
भगवान ने धनुष को खींचकर सौ बाण संधान किए। बाण छूटे और उसके शरीर में समा गए। उसने एक पर्वत उखाड़ लिया। रघुकुल तिलक श्री रामजी ने उसकी वह भुजा ही काट दी। तब वह बाएँ हाथ में पर्वत को लेकर दौड़ा। प्रभु ने उसकी वह भुजा भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दी। भुजाओं के कट जाने पर वह दुष्ट कैसी शोभा पाने लगा, जैसे बिना पंख का मंदराचल पहाड़ हो।
उसने उग्र दृष्टि से प्रभु को देखा। मानो तीनों लोकों को निगल जाना चाहता हो। वह बड़े जोर से चिग्घाड़ करके मुँह फैलाकर दौड़ा।
भगवान ने धनुष को कान तक तानकर राक्षस के मुख को बाणों के समूह से भर दिया। तो भी वह महाबली पृथ्वी पर न गिरा। मुख में बाण भरे हुए वह प्रभु के सामने दौड़ा।
तब प्रभु ने क्रोध करके तीक्ष्ण बाण लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। वह सिर रावण के आगे जा गिरा उसे देखकर रावण ऐसा व्याकुल हुआ जैसे मणि के छूट जाने पर सर्प।
कुंभकर्ण का प्रचण्ड धड़ दौड़ा, जिससे पृथ्वी धँसी जाती थी। तब प्रभु ने काटकर उसके दो टुकड़े कर दिए। वानर-भालू और निशाचरों को अपने नीचे दबाते हुए वे दोनों टुकड़े पृथ्वी पर ऐसे पड़े जैसे आकाश से दो पहाड़ गिरे हों। उसका तेज प्रभु श्री रामचंद्रजी के मुख में समा गया। यह देखकर देवता और मुनि सभी ने आश्चर्य माना।
देवता नगाड़े बजाते, हर्षित होते और स्तुति करते हुए बहुत से फूल बरसा रहे हैं। विनती करके सब देवता चले गए। उसी समय देवर्षि नारद आए। आकाश के ऊपर से उन्होंने श्री हरि के सुंदर वीर रसयुक्त गुण समूह का गान किया, जो प्रभु के मन को बहुत ही भाया। मुनि यह कहकर चले गए कि अब दुष्ट रावण को शीघ्र मारिए।
लक्ष्मण मेघनाद युद्ध कहानी
अब तक आपने पढ़ा रावण के भाई कुम्भकर्ण का वध भगवान श्री राम ने किया है। रावण बहुत विलाप कर रहा है। बार-बार भाई कुंभकर्ण का सिर कलेजे से लगाता है। उसी समय मेघनाद आया और उसने अपने पिता को समझाया। और कहा कल मेरा पुरुषार्थ देखिएगा। मैंने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ पाया था, वह बल और रथ अब तक आपको नहीं दिखलाया था।
इस प्रकार डींग मारते हुए सबेरा हो गया। लंका के चारों दरवाजों पर बहुत से वानर आ डटे। इधर काल के समान वीर वानर-भालू हैं और उधर अत्यंत रणधीर राक्षस। दोनों ओर के योद्धा अपनी-अपनी जय के लिए लड़ रहे हैं।
मेघनाद उसी पूर्वोक्त मायामय रथ पर चढ़कर आकाश में चला गया और अट्टहास करके गरजा, जिससे वानरों की सेना में भय छा गया। वह शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र, शास्त्र एवं वज्र आदि बहुत से आयुध चलाने तथा फरसे, परिघ, पत्थर आदि डालने और बहुत से बाणों की वृष्टि करने लगा। मेघनाद ने माया के बल से अटपटी घाटियों, रास्तों और पर्वतों-कन्दराओं को बाणों के पिंजरे बना दिए बाणों से छा दिया। मेघनाद ने मारुति हनुमान्, अंगद, नल और नील आदि सभी बलवानों को व्याकुल कर दिया। फिर उसने लक्ष्मणजी, सुग्रीव और विभीषण को बाणों से मारकर उनके शरीर को छलनी कर दिया।
फिर वह श्री रघुनाथजी से लड़ने लगा। वह जो बाण छोड़ता है, वे साँप होकर लगते हैं।
श्री रामजी लीला से नागपाश में बंध गए। रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बाँध लिया।
शिवजी कहते हैं- हे भवानी!! जिनका नाम जपकर मुनि भव जन्म-मृत्यु की फाँसी को काट डालते हैं, वे सर्वव्यापक और विश्व निवास विश्व के आधार प्रभु कहीं बंधन में आ सकते हैं?
मेघनाद ने सेना को व्याकुल कर दिया। फिर वह प्रकट हो गया और दुर्वचन कहने लगा। इस पर जाम्बवान् ने कहा- अरे दुष्ट! खड़ा रह। यह सुनकर उसे बड़ा क्रोध बढ़ा। अरे मूर्ख! मैंने बूढ़ा जानकर तुझको छोड़ दिया था। ऐसा कहकर उसने चमकता हुआ त्रिशूल चलाया। जाम्बवान् उसी त्रिशूल को हाथ से पकड़कर दौड़ा।
पर उसे मेघनाद की छाती पर दे मारा। वह देवताओं का शत्रु चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। जाम्बवान् ने फिर क्रोध में भरकर पैर पकड़कर उसको घुमाया और पृथ्वी पर पटककर उसे अपना बल दिखलाया। किन्तु वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता। तब जाम्बवान् ने उसका पैर पकड़कर उसे लंका पर फेंक दिया।
इधर देवर्षि नारदजी ने गरुड़ को भेजा। वे तुरंत ही श्री रामजी के पास आ पहुँचे। पक्षीराज गरुड़जी सब माया-सर्पों के समूहों को पकड़कर खा गए। और सभी वानर खुश होकर फिर से युद्ध करने लगे।
लक्ष्मण मेघनाद युद्ध
मेघनाद की मूर्च्छा छूटी, तब पिता को देखकर उसे बड़ी शर्म लगी। मैं अजय अजेय होने को यज्ञ करूँ, ऐसा मन में निश्चय करके वह तुरंत श्रेष्ठ पर्वत की गुफा में चला गया।
इधर विभीषण ने रामजी को सलाह दी- हे अतुलनीय बलवान् उदार प्रभो! देवताओं को सताने वाला दुष्ट, मायावी मेघनाद अपवित्र यज्ञ कर रहा है। यदि वह यज्ञ सिद्ध हो पाएगा तो हे नाथ! फिर मेघनाद जल्दी जीता न जा सकेगा।
यह सुनकर श्री रघुनाथजी ने बहुत सुख माना और अंगदादि बहुत से वानरों को बुलाया और कहा- हे भाइयों! सब लोग लक्ष्मण के साथ जाओ और जाकर यज्ञ को विध्वंस करो। हे लक्ष्मण! संग्राम में तुम उसे मारना। हे जाम्बवान, सुग्रीव और विभीषण! तुम तीनों जन सेना समेत इनके साथ रहना।
इस प्रकार जब श्री रघुवीर ने आज्ञा दी, तब कमर में तरकस कसकर और धनुष सजाकर चढ़ाकर रणधीर श्री लक्ष्मणजी प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण करके मेघ के समान गंभीर वाणी बोले- यदि मैं आज उसे बिना मारे आऊँ, तो श्री रघुनाथजी का सेवक न कहलाऊँ। यदि सैकड़ों शंकर भी उसकी सहायता करें तो भी श्री रघुवीर की दुहाई है, आज मैं उसे मार ही डालूँगा।
श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर शेषावतार श्री लक्ष्मणजी तुरंत चले। उनके साथ अंगद, नील, मयंद, नल और हनुमान आदि उत्तम योद्धा थे।
वानरों ने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैंसे की आहुति दे रहा है। वानरों ने सब यज्ञ विध्वंस कर दिया। फिर भी वह नहीं उठा ,फिर उन्होंने उसके बाल पकड़े और लातों से मार-मारकर वे भाग चले। वह त्रिशूल लेकर दौड़ा, तब वानर भागे और वहाँ आ गए, जहाँ आगे लक्ष्मणजी खड़े थे।
वह अत्यंत क्रोध का मारा हुआ आया और बार-बार भयंकर शब्द करके गरजने लगा। मारुति हनुमान् और अंगद क्रोध करके दौड़े। उसने छाती में त्रिशूल मारकर दोनों को धरती पर गिरा दिया।
फिर उसने प्रभु श्री लक्ष्मणजी पर त्रिशूल छोड़ा। श्री लक्ष्मणजी ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए।
शत्रु मेघनाद मारे नहीं मरता, यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर चिग्घाड़ करके दौड़ा। उसे क्रुद्ध काल की तरह आता देखकर लक्ष्मणजी ने भयानक बाण छोड़े।
वह भाँति-भाँति के रूप धारण करके युद्ध करने लगा। वह कभी प्रकट होता था और कभी छिप जाता था।
अब लक्ष्मणजी बहुत क्रोधित हुए और सोचने लगे अब तो इसे समाप्त ही कर देना चाहिए।
श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मणजी ने वीरोचित दर्प करके बाण का संधान किया। बाण छोड़ते ही उसकी छाती के बीच में लगा और मरने लगा। मरते समय उसने सब कपट त्याग दिया। राम के छोटे भाई लक्ष्मण कहाँ हैं? राम कहाँ हैं? ऐसा कहकर उसने प्राण छोड़ दिए।
अंगद और हनुमान कहने लगे- तेरी माता धन्य है, धन्य है जो तू लक्ष्मणजी के हाथों मरा और मरते समय श्री राम-लक्ष्मण को स्मरण करके तूने उनके नामों का उच्चारण किया।
हनुमान्जी ने उसको उठाया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए। उसका मरना सुनकर देवता और गंधर्व आदि सब फूल बरसाकर नगाड़े बजाते हैं और श्री रघुनाथजी का निर्मल यश गाते हैं।
रावण ने ज्यों ही पुत्रवध का समाचार सुना, त्यों ही वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। मंदोदरी छाती पीट-पीटकर और बहुत प्रकार से पुकार-पुकारकर बड़ा भारी विलाप करने लगी। नगर के सब लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी रावण को नीच कहने लगे।