June 15, 2025 8:07 am

रावण विभीषण युद्ध व सीता त्रिजटा का अशोक वाटिका में युद्ध संवाद

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संक्षिप्त रामायण(भार्गव)

रावण विभीषण युद्ध

फिर रावण ने क्रोधित होकर प्रचण्ड शक्ति छोड़ी। वह विभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल यमराज का दण्ड हो।

श्री रामजी ने तुरंत ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली। शक्ति लगने से उन्हें कुछ मूर्छा हो गई। प्रभु ने तो यह लीला की, पर देवताओं को व्याकुलता हुई।

विभीषण क्रोधित हो हाथ में गदा लेकर दौड़े। अरे दुष्ट! तू अब तक बचा है, किन्तु अब काल तेरे सिर पर नाच रहा है। अरे मूर्ख! तू राम विमुख होकर सम्पत्ति सुख चाहता है? ऐसा कहकर विभीषण ने रावण की छाती के बीचों-बीच गदा मारी।

बीच छाती में कठोर गदा की घोर और कठिन चोट लगते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके दसों मुखों से रुधिर बहने लगा, वह अपने को फिर संभालकर क्रोध में भरा हुआ दौड़ा। दोनों अत्यंत बलवान्‌ योद्धा भिड़ गए और मल्लयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध होकर मारने लगे। विभीषण को बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान्‌जी पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से रावण के रथ, घोड़े और सारथी का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी।

रावण खड़ा रहा, पर उसका शरीर अत्यंत काँपने लगा। विभीषण वहाँ गए, जहाँ सेवकों के रक्षक श्री रामजी थे। फिर रावण ने ललकारकर हनुमान्‌जी को मारा। वे पूँछ फैलाकर आकाश में चले गए।

रावण ने पूँछ पकड़ ली, हनुमान्‌जी उसको साथ लिए ऊपर उड़े। फिर लौटकर महाबलवान्‌ हनुमान्‌जी उससे भिड़ गए। दोनों समान योद्धा आकाश में लड़ते हुए एक-दूसरे को क्रोध करके मारने लगे। जब बुद्धि और बल से राक्षस गिराए न गिरा तब मारुति श्री हनुमान्‌जी ने प्रभु को स्मरण किया और एक जोर से प्रहार किया।

अब रावण क्षणभर के लिए अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्ट ने अनेकों रूप प्रकट किए। श्री रघुनाथजी की सेना में जितने रीछ-वानर थे, उतने ही रावण जहाँ-तहाँ चारों ओर प्रकट हो गए। दसों दिशाओं में करोड़ों रावण दौड़ते हैं। सब देवता और वानर घबरा गए।

देवताओं और वानरों को विकल देखकर कोसलपति श्री रामजी हँसे और शार्गं धनुष पर एक बाण चढ़ाकर माया के बने हुए) सब रावणों को मार डाला। प्रभु ने क्षणभर में सब माया काट डाली।

अब रावण को देवताओं पर क्रोध आया और रावण उनकी और दौड़ा। देवता हाहाकार करते हुए भागे। रावण ने कहा दुष्टों! मेरे आगे से कहाँ जा सकोगे? देवताओं को व्याकुल देखकर अंगद दौड़े और उछलकर रावण का पैर पकड़कर उन्होंने उसको पृथ्वी पर गिरा दिया।

रावण संभलकर उठा और बड़े भंयकर कठोर शब्द से गरजने लगा। वह दर्प करके दसों धनुष चढ़ाकर उन पर बहुत से बाण संधान करके बरसाने लगा। उसने सब योद्धाओं को घायल और भय से व्याकुल कर दिया।

बालिपुत्र अंगद, मारुति हनुमान्‌जी, नल, नील, वानरराज सुग्रीव और द्विविद आदि बलवान्‌ उस पर वृक्ष और पर्वतों का प्रहार करते हैं।

वह उन्हीं पर्वतों और वृक्षों को पकड़कर वानरों को मारता है। हनुमान्‌जी आदि सब वानरों को मूर्च्छित करके और संध्या का समय पाकर रावण हर्षित हुआ।

समस्त वानर-वीरों को मूर्च्छित देखकर रणधीर जाम्बवत्‌ दौड़े। जाम्बवान्‌ ने अपने दल का विध्वंस देखकर क्रोध करके रावण की छाती में लात मारी।

छाती में लात का प्रचण्ड आघात लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसे मूर्च्छित देखकर, फिर लात मारकर ऋक्षराज जाम्बवान्‌ प्रभु के पास चले।

रात्रि जानकर सारथी रावण को रथ में डालकर उसे होश में लाने का उपाय करने लगा।

सीता त्रिजटा अशोक वाटिका युद्ध संवाद

अशोक वाटिका में सीता माता बहुत व्याकुल है। त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनकर सीताजी के हृदय में बड़ा भय हुआ। श्री रघुनाथजी के बाणों से सिर कटने पर भी नहीं मरता।

कृपानिधान श्री रामजी की याद कर-करके जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं। त्रिजटा ने कहा हे राजकुमारी! सुनो, देवताओं का शत्रु रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा।

सीताजी पूछती है की फिर रामजी उसके हृदय में बाण क्यों नही मारते हैं।

त्रिजटा बोली प्रभु उसके हृदय में बाण इसलिए नहीं मारते कि रावण के हृदय में जानकीजी आप बसती हैं। और जानकी के ह्रदय में श्री राम बसते हैं। यही सोचकर इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और अगर बाण मार दिया तो ब्रह्माण्ड ही नष्ट हो जायेगा।

यह वचन सुनकर सीताजी के मन में अत्यंत हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटा ने फिर कहा- हे सुंदरी! महान्‌ संदेह का त्याग कर दो। सिरों के बार-बार काटे जाने से जब वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जाएगा, तब सुजान अंतर्यामी श्री रामजी रावण के हृदय में बाण मारेंगे।

ऐसा कहकर और सीताजी को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। श्री रामचंद्रजी के स्वभाव का स्मरण करके जानकीजी को अत्यंत विरह व्यथा उत्पन्न हुई। जब विरह के मारे हृदय में दारुण दाह हो गया, तब उनका बायाँ नेत्र और बाहु फड़क उठे। शकुन समझकर उन्होंने मन में धैर्य धारण किया कि अब कृपालु श्री रघुवीर अवश्य मिलेंगे।

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