संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
ऐसा कहकर भगवान वहां से चल दिए है और माँ कौसल्या के पास जा रहे हैं। भगवान को देखते ही सभी जान गए कुछ बुरा हुआ है। और ये बात बिजली की तरह फ़ैल गई है। सारे नर-नारी दुखी हों रहे हैं बस यही प्रार्थना कर रहे हैं की आज सुबह ही ना हों।
सजन सकारे जायंगे, नैन मरेंगे रोय बिधना ऐसी रैन कर, भोर कभू ना होय। सबको पता है राम जी सुबह होते ही वन में चले जायेंगे इसलिए हे विधाता ऐसी रात्रि का निर्माण कर की दिन ही ना निकले।
भगवान राम माँ कौसल्या के पास पहुंचे हैं-
रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥ दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥
श्री रामचंद्रजी ने दोनों हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद दिया, अपने हृदय से लगा लिया। माता बार-बार श्री रामचंद्रजी का मुख चूम रही हैं। नेत्रों में प्रेम का जल भर आया है और सब अंग पुलकित हो गए हैं।
माँ कहती है – बेटा सारी तयारी पूरी कर ली ना तुमने राजतिलक की। गुरुदेव ने जो जो कहा वो सब पालन कर लिया ना तुमने? तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो।
भगवान बोले की हाँ माँ, सब पालन हों रहा है। पर आप धैर्य रखो।
माँ कहती है धैर्य किस बात का? मैंने तो प्रसन्न हूँ।
श्री रामचंद्रजी ने धर्म की गति को जानकर माता से अत्यंत कोमल वाणी से कहा- हे माता! पिताजी ने मुझको वन का राज्य दिया है, जहाँ सब प्रकार से मेरा बड़ा काम बनने वाला है। पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥
हे माता! तू प्रसन्न मन से मुझे आज्ञा दे, जिससे मेरी वन यात्रा में आनंद-मंगल हो। हे माता! तेरी कृपा से आनंद ही होगा॥
जैसे ही माँ ने सुना है- श्री रामजी के ये बहुत ही नम्र और मीठे वचन माता के हृदय में बाण के समान लगे और कसकने लगे। और माँ दिवार से सटकर बैठ गई है। नेत्रों में जल भर आया, शरीर थर-थर काँपने लगा। और फिर मंत्री के पुत्र ने जो जिस प्रकार हुआ वह सब समझाया है। उस प्रसंग को सुनकर वे गूँगी जैसी चुप रह गईं, उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता॥
सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी॥ माँ का सरल सवभाव है और माँ धैर्य धारण करके गंभीर होकर बोली – बेटा मैं तुम्हे वन जाने से रोक सकती हूँ, क्योंकि दशरथ से ज्यादा मेरा तुम पर अधिकार है। लेकिन ककई का तुम पर मुझसे ज्यादा अधिकार है।
क्योंकि वो मेरे से ज्यादा तुमसे प्यार करती है। यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा, हो तो तुम माता को पिता से बड़ी जानकर वन को मत जाओ, किन्तु यदि पिता-माता दोनों ने वन जाने को कहा हो, तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या के समान है। अब मैं नही रोकूंगी।
अब माँ कहती है मुझे थोड़ी चिंता हों रही है। यदि तुम वन चले गए तो महाराज दशरथ का क्या हाल होगा? और जब भरत को ये सब जान पड़ेगा तो भरत का क्या होगा? राजु देन कहिदीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु। तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु॥
माँ कहती है ये अवध बड़ा अभागा जिसने तुम्हारा त्याग कर दिया और वन बड़ा भाग्यवान है। हे गोसाईं! सब देव और पितर तुम्हारी वैसी ही रक्षा करें, जैसे पलकें आँखों की रक्षा करती हैं। श्री रामचन्द्रजी ने माता को उठाकर हृदय से लगा लिया।
जब बात हों रही थी तो उसी बीच जानकी जी का आगमन हुआ है। और सीताजी अपनी सास के पास आकर उनके चरणों में बैठ गई है।
सीताजी सुंदर नेत्रों से जल बहा रही हैं। सीता जी कहती हैं की मैं भी वन में जाउंगी।
माँ कहती है-पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जबसे तुम विवाह करके घर आई हों मैंने तुमको पलंग से कठोर जमीं पर कभी पग नही रखने दिया। क्योंकि जब तुम्हारे पिता तुमको विदा कर रहे थे तो उन्होंने कहा था की ये मेरी बेटी नही प्राण है। और दशरथ जी ने यहाँ आकर घोषणा कर दी थी की ये चारों बहुएं घर में आई है, सभी रानियां सुन लें, इनका निवास जमीं पर नही पलकों पर होना चाहिए।
अब भगवान राम सीता को समझाते हैं- जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो। सास की सेवा करो। वन में बहुत कष्ट होता है। वन बड़ा कठिन क्लेशदायक और भयानक है। वहाँ की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक हैं॥ जंगली जानवर होते हैं। कंकर, पत्थर और कांटे होते हैं। तुम्हारे चरणकमल कोमल और सुंदर हैं। तुम वन में नही चल पाओगी। जमीन पर सोना, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना और कंद, मूल, फल का भोजन करना होगा।
जानकीजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता, वे यह सोचकर व्याकुल हो उठीं कि मेरे पवित्र और प्रेमी स्वामी मुझे छोड़ जाना चाहते हैं। सास के पैर लगकर, हाथ जोड़कर कहने लगीं- हे देवि! मेरी इस बड़ी भारी ढिठाई को क्षमा कीजिए। मुझे प्राणपति ने वही शिक्षा दी है, जिससे मेरा परम हित हो। परन्तु मैंने मन में समझकर देख लिया कि पति के वियोग के समान जगत में कोई दुःख नहीं है॥
जानकी जी कहती हैं-मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥ मैं सुकुमारी हूँ और नाथ वन के योग्य हैं? आपको तो तपस्या उचित है और मुझको विषय भोग?
क्या मैं आपसे ज्यादा कोमल हूँ? क्योंकि सबसे ज्यादा कोमल है कमल, और कमल से ज्यादा कोमल है कमला लक्ष्मी जी, और कमला से कोमल है कमला के कर कमल हाथ, और कमला के कर कमलों से कोमल हैं आपके चरण कमल।
जब मैं आपके चरण दबाती हूँ तो ऐसा लगता है की आपके चरणों को आघात ना पहुँच जाएं। कोई कष्ट ना हों आपको। यदि मैं आपके साथ जाउंगी तो कोई विघ्न नही डालूंगी। किसी भी प्रकार का आपकी साधना में कोई रुकावट नही आएगी। और मेरे माता-पिता ने भी यही कहा था की किसी भी परिस्तिथि में अपने पति का साथ नही छोड़ना है। जैसे वो रहे वैसे ही रहना है।
मैं आपकी सेवा करुँगी। मेरा जीवन तो आपके आधीन है। सीता जी नही मानी हैं। और भगवान ने कह दिया है-
देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥
उनकी यह दशा देखकर श्री रघुनाथजी ने अपने जी में जान लिया कि यदि जानकी आज यहाँ रह गई तो ये अपने प्राण खो देंगी।
और श्रीरामचन्द्र जी ने कहा-तुम मेरे साथ वन चलो और तुरंत वनगमन की तैयारी करो॥
अब माँ ने भी सीता जी और राम जी को जाने की आज्ञा दे दी है। और भगवान बार-बार प्रणाम कर रहे है और बार बार आशीर्वाद लें रहे हैं।