संक्षिप रामायण(भार्गव)
अरण्यकाण्ड और अत्रि मुनि(अध्याय81)
भरत चरित्र के बाद तुलसीदास जी ने अरण्यकाण्ड प्रारम्भ किया है। तुलसीदास जी ने शिव और माँ पार्वती की वंदना की है साथ में श्री राम जी की वंदना की है।
एक बार सुंदर फूल चुनकर श्री रामजी ने अपने हाथों से भाँति-भाँति के गहने बनाए और सुंदर स्फटिक शिला पर बैठे हुए प्रभु ने आदर के साथ वे गहने श्री सीताजी को पहनाए।
इंद्र पुत्र जयन्त कहानी
देवराज इन्द्र का मूर्ख पुत्र जयन्त कौए का रूप धरकर श्री रघुनाथजी का बल देखना चाहता है। उसने कौआ बनकर सीताजी के चरणों में चोंच मारी और भाग गया। सीता जी के पैर से रक्त बहने लगा।
तब श्री रघुनाथजी ने धनुष पर सींक का बाण संधान किया॥ मन्त्र से प्रेरित वह बाण जयन्त के पीछे लग गया। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया लेकिन इंद्र उसकी रक्षा नही कर पाया।
फिर वह ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोकों में थका और डरा हुआ भागता फिरने लगा। लेकिन किसी ने रक्षा करनी तो दूर, उसे बैठने तक के लिए नहीं कहा।
तुलसीदास जी कहते हैं जो राम जी से बैर रखता है – उसके लिए माता मृत्यु के समान, पिता यमराज के समान और अमृत विष के समान हो जाता है॥ मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना।
नारदजी ने जयन्त को व्याकुल देखा तो उन्हें दया आ गई, और उसे तुरंत श्री रामजी के पास भेज दिया।
उसने रामजी के पास जाकर कहा- हे शरणागत के हितकारी! मेरी रक्षा कीजिए और रामजी के चरण पकड़ लिए। आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता को मैं मन्दबुद्धि जान नहीं पाया था।अपने किये का फल मुझे मिल गया है अब मेरी रक्षा कीजिये प्रभु।
कृपालु श्री रघुनाथजी ने उसकी अत्यंत दुःख भरी वाणी सुनकर उसे एक आँख का काना करके छोड़ दिया। उसने मोहवश द्रोह किया था, इसलिए यद्यपि उसका वध ही उचित था, पर प्रभु ने कृपा करके उसे छोड़ दिया। श्री रामजी के समान कृपालु और कौन होगा?
इस प्रकार भगवान ने चित्रकूट में काफी चरित्र किये हैं। अब श्री रामजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गए हैं, इससे बड़ी भीड़ हो जाएगी। सब मुनियों से विदा लेकर सीताजी सहित दोनों भाई चले!
अनसूयाजी माता और सीता जी संवाद
फिर परम शीलवती और विनम्र श्री सीताजी अनसूयाजी के चरण पकड़कर उनसे मिलीं। उन्होंने आशीष देकर सीताजी को पास बैठा लिया और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए, जो नित्य-नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं। कभी भी मैले और पुराने नही होते। फिर माँ अनसूयाजी ने सुंदर शिक्षा दी है जानकी जी को
हे राजकुमारी! सुनिए- माता, पिता, भाई सभी हित करने वाले हैं, परन्तु ये सब एक सीमा तक ही देने वाले हैं, परन्तु हे जानकी! पति तो असीम देने वाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती।
धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दुःख पाती है।
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥ शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है।
जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएँ हैं। वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में अपने पति को छोड़कर दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है।
मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराए पति को कैसे देखती है, जैसे वह अपना सगा भाई, पिता या पुत्र हो अर्थात समान अवस्था वाले को वह भाई के रूप में देखती है, बड़े को पिता के रूप में और छोटे को पुत्र के रूप में देखती है।
जो धर्म को विचारकर और अपने कुल की मर्यादा समझकर बची रहती है, वह निकृष्ट निम्न श्रेणी की स्त्री है, ऐसा वेद कहते हैं।
और जो स्त्री मौका न मिलने से या भयवश पतिव्रता बनी रहती है, जगत में उसे अधम स्त्री जानना। पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराए पति से रति करती है, वह तो सौ कल्प तक रौरव नरक में पड़ी रहती है।
क्षणभर के सुख के लिए जो सौ करोड़ जन्मों के दुःख को नहीं समझती, उसके समान दुष्टा कौन होगी। जो स्त्री छल छोड़कर पतिव्रत धर्म को ग्रहण करती है, वह बिना ही परिश्रम परम गति को प्राप्त करती है॥
किन्तु जो पति के प्रतिकूल चलती है, वह जहाँ भी जाकर जन्म लेती है, वहीं जवानी पाकर विधवा हो जाती है॥
स्त्री जन्म से ही अपवित्र है, किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। पतिव्रत धर्म के कारण ही) आज भी तुलसीजी भगवान को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यश गाते हैं।
हे सीता! सुनो, तुम्हारा तो नाम ही ले-लेकर स्त्रियाँ पतिव्रत धर्म का पालन करेंगी। तुम्हें तो श्री रामजी प्राणों के समान प्रिय हैं, यह कथा तो मैंने संसार के हित के लिए कही है।
जानकीजी ने सुनकर परम सुख पाया और आदरपूर्वक उनके चरणों में सिर नवाया।
तब कृपा की खान श्री रामजी ने मुनि से कहा- आज्ञा हो तो अब दूसरे वन में जाऊँ। मुझ पर निरंतर कृपा करते रहिएगा और अपना सेवक जानकर स्नेह न छोड़िएगा।
श्री रामजी के वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेमपूर्वक बोले- मैं किस प्रकार कहूँ कि हे स्वामी! आप अब जाइए? हे नाथ! आप अन्तर्यामी हैं, आप ही कहिए। और मुनि की आँखों से प्रेम के आंसू टपकने लगे।
शरभंग मुनि और श्री राम
मुनि के चरण कमलों में सिर नवाकर देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी श्री रामजी वन को चले। रास्ते में जाते हुए विराध राक्षस मिला।
सामने आते ही श्री रघुनाथजी ने उसे मार डाला। श्री रामजी के हाथ से मरते ही उसने तुरंत दिव्य रूप प्राप्त कर लिया। दुःखी देखकर प्रभु ने उसे अपने परम धाम को भेज दिया।
अब भगवान छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ वहाँ आए जहाँ मुनि शरभंगजी थे। मुनि ने कहा- हे कृपालु रघुवीर! सुनिए, मैं ब्रह्मलोक को जा रहा था।कानों से सुना कि श्री रामजी वन में आवेंगे।
तब से मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूँ। और आज आपका दर्शन पाकर मेरी छाती शीतल हो गई है। अब मुझ दीन के कल्याण के लिए तब तक यहाँ ठहरिए, जब तक मैं शरीर छोड़कर आपसे मिलूँ।
योग, यज्ञ, जप, तप जो कुछ व्रत आदि भी मुनि ने किया था, सब प्रभु को समर्पण करके बदले में भक्ति का वरदान ले लिया। हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुण रूप श्री रामजी!
सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु निरंतर मेरे हृदय में निवास कीजिए। ऐसा कहकर शरभंगजी ने योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और श्री रामजी की कृपा से वे वैकुंठ को चले गए।