December 8, 2025 11:03 pm

रावण मंदोदरी संवाद

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संक्षिप्त रामायण(भार्गव)

 

राम हनुमान प्रेम

रामचन्द्र जी ने हर्षित होकर हनुमान्‌जी को फिर हृदय से लगा लिया और कहा- हे हनुमान! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं?

हनुमान्‌जी ने कहा- आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है। नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से?

चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि दी। श्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया। हनुमान्‌जी ने फिर कहा- हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी ने मुझसे कुछ वचन कहे- छोटे भाई समेत प्रभु के चरण पकड़ना और कहना कि मैं मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागिणी हूँ।

फिर आप ने मुझे किस अपराध से त्याग दिया? हाँ एक दोष मैं अपना मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए, किंतु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं।

हनुमान जी कहते हैं- हे करुणानिधान! उनका एक-एक पल कल्प के समान बीतता है। अतः हे प्रभु! तुरंत चलिए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीतकर सीताजी को ले आइए।

सीताजी का दुःख सुनकर सुप्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया और वे बोले-मन, वचन और शरीर से जिसे मेरी ही गति है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है?

हनुमान जी कहते हैं- कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई। हे प्रभु! विपत्ति तो वही है जब आपका भजन-स्मरण न हो।

हे प्रभो! राक्षसों की बात ही कितनी है? आप शत्रु को जीतकर जानकीजी को ले आवेंगे।

भगवान्‌ कहने लगेहे हनुमान्‌! सुन, तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं तुम्हारे ऋण से कभी मुक्त नही हो सकता हूँ।

प्रभु के वचन सुनकर हनुमान श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े।

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा। प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।

प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान्‌जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु का करकमल हनुमान्‌जी के सिर पर है। उस स्थिति का स्मरण करके शिवजी प्रेममग्न हो गए।

हनुमान जी उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और अपने पास बिठा लिया। रामजी अब देखना चाहते है कहीं मेरे भक्त में अहंकार तो नही आ गया ये सब काम अकेले करके आया ?

राम जी पूछते हैं- हनुमान! क्या तुमने अकेले लंका में आग लगाई?

हनुमान जी कहते हैं- मैंने लंका में आग नही लगाई। लंका को जलाया आप के प्रताप ने। लंका को जलाया रावण के पाप ने। लंका को जलाया माँ जानकी के शाप ने और लंका को जलाया मेरे बाप ने। मैंने तो चिंगारी छोड़ी थी पवन देव ने आग फैला दी।

हनुमान जी कहते हैं- सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई। यह सब तो हे श्री रघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ भी नहीं है।

हे प्रभु! जिस पर आप प्रसन्न हों, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। असंभव भी संभव हो सकता है।

हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। भगवान ने कहा एवमस्तु कहा।

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना। भगवान शिव पार्वती से कहते हैं- हे उमा! जिसने श्री रामजी का स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती।

सभी वानर भगवान राम की जय-जय कार करने लगे। तब श्री रघुनाथजी ने कपिराज सुग्रीव को बुलाया और कहा- चलने की तैयारी करो।

वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही वानरों को बुलाया, सेनापतियों के समूह आ गए। वानर-भालुओं के अनेक झुंड हैं। वे प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाते हैं। महान्‌ बलवान्‌ रीछ और वानर गरज रहे हैं। श्री रामजी ने वानरों की सारी सेना देखी। तब कमल नेत्रों से कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली। राम कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पंखवाले बड़े पर्वत हो गए। तब श्री रामजी ने हर्षित होकर प्रस्थान किया।

प्रभु का प्रस्थान जानकीजी ने भी जान लिया। उनके बाएँ अंग फड़क-फड़ककर मानो कहे देते थे।

इस प्रकार कृपानिधान श्री रामजी समुद्र तट पर जा उतरे। अनेकों रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने लगे।

रावण मंदोदरी संवाद

लंका में जब से हनुमान्‌जी लंका को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे। मंदोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई॥ वह एकांत में हाथ जोड़कर पति के चरणों लगी और बोली- हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए। हे प्यारे स्वामी! यदि भला चाहते हैं, तो अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥ सीता को लौटाए बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता॥

मुर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हँसा और बोला- स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत डरपोक होता है। यदि वानरों की सेना आवेगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे। रावण ने ऐसा कहकर हँसकर कहा और अपनी सभा में चला गया। मंदोदरी हृदय में चिंता करने लगी कि पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए॥

ज्यों ही वह सभा में जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई कि शत्रु की सारी सेना समुद्र के उस पार आ गई है, उसने मंत्रियों से पूछा कि उचित सलाह कहिए अब क्या करना चाहिए?

तब वे सब हँसे और बोले कि इसमें सलाह की कौन सी बात है? आपने देवताओं और राक्षसों को जीत लिया, तब तो कुछ श्रम ही नहीं हुआ। फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में हैं?

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