संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
श्री रघुनाथजी और सुमंत्र कथा
श्री रघुनाथजी और सुमंत्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी बात कही। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने उसे बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया।
श्री रामचन्द्रजी ने सकुचाकर, अपनी सौगंध दिलाकर सुमंत्रजी से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह संदेश न कहिएगा।
सुमंत्र ने फिर राजा का संदेश कहा कि सीता वन के क्लेश न सह सकेंगी। सीता के मायके और ससुराल में सब सुख हैं। जब तक यह विपत्ति दूर नहीं होती, तब तक वे जब जहाँ जी चाहें, वहीं सुख से रहेंगी।
कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी ने पिता का संदेश सुनकर सीताजी को करोड़ों प्रकार से सीख दी।रामजी कहते हैं जानकी, जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुम्बी सबकी चिन्ता मिट जाए।
यह सब सुनकर जानकीजी कहती हैं- हे प्राणपति! हे परम स्नेही! सुनिए-शरीर को छोड़कर छाया अलग कैसे रोकी रह सकती है? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोड़कर कहाँ जा सकती है? और चाँदनी चन्द्रमा को त्यागकर कहाँ जा सकती है?
सीताजी मंत्री से सुहावनी वाणी कहने लगीं- आप मेरे पिताजी और ससुरजी के समान मेरा हित करने वाले हैं। आपको मैं बदले में उत्तर देती हूँ, यह बहुत ही अनुचित है। किन्तु हे तात! आप बुरा न मानिएगा। स्वामी के चरणकमलों के बिना जगत में जहाँ तक नाते हैं, सभी मेरे लिए व्यर्थ हैं।
मैंने पिताजी के ऐश्वर्य की छटा देखी है, बड़े-बड़े राजा जिनके चरणों में प्रणाम करते हैं। ऐसे पिता का घर भी, जो सब प्रकार के सुखों का भंडार है, पति के बिना मेरे मन को भूलकर भी नहीं भाता।
मेरे ससुर कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है, इन्द्र भी आगे होकर जिनका स्वागत करता है और अपने आधे सिंहासन पर बैठने के लिए स्थान देता है।
ऐसे ऐश्वर्य और प्रभावशाली ससुर, अयोध्या का निवास, प्रिय कुटुम्बी और माता के समान सासुएँ- ये कोई भी श्री रघुनाथजी के चरण कमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते।
अतः सास और ससुर के पाँव पड़कर, मेरी ओर से विनती कीजिएगा कि वे मेरा कुछ भी सोच न करें, मैं वन में स्वभाव से ही सुखी हूँ।
सुमंत्र सीताजी की शीतल वाणी सुनकर ऐसे व्याकुल हो गए जैसे साँप मणि खो जाने पर। नेत्रों से कुछ सूझता नहीं, कानों से सुनाई नहीं देता। वे बहुत व्याकुल हो गए, कुछ कह नहीं सकते।
भगवान श्री राम ने उन्हें जाने के लिए फिर आग्रह किया है। श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी के चरणों में सिर नवाकर सुमंत्र इस तरह लौटे जैसे कोई व्यापारी अपना मूलधन गँवाकर लौटे।
श्री रामचन्द्रजी ने जबर्दस्ती सुमंत्र को लौटाया। अब भगवान गंगा नदी के तट पर आये हैं। और माँ गंगा को प्रणाम किया है। और भगवान केवट को बुला रहे हैं।