संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
राम भरत मिलन(अध्याय69)
अब भरत जी राम जी की और बढे आ रहे हैं। भरतजी अपनी माता कैकेयी की करनी को याद करके सकुचाते हैं और सोचते हैं श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी मेरा नाम सुनकर स्थान छोड़कर कहीं दूसरी जगह उठकर न चले जाएँ॥
तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरतजी से कहने लगा- हे नाथ! ये जो पाकर, जामुन, आम और तमाल के विशाल वृक्ष दिखाई देते हैं। ये वृक्ष नदी के समीप हैं, जहाँ श्री राम की पर्णकुटी छाई है॥ इसी बड़ की छाया में सीताजी ने अपने करकमलों से सुंदर वेदी बनाई है।
सखा के वचन सुनकर और वृक्षों को देखकर भरतजी के नेत्रों में जल उमड़ आया। और दौड़े जा रहे हैं राम जी की ओर। जैसे ही आश्रम में प्रवेश किया तो भरतजी का दुःख और दाह मिट गया।
भरतजी ने देखा कि लक्ष्मणजी प्रभु के आगे खड़े हैं। श्री रामजी के वल्कल वस्त्र हैं, जटा धारण किए हैं, श्याम शरीर है। सुंदर मुनि मंडली के बीच में सीताजी और रघुकुलचंद्र श्री रामचन्द्रजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो ज्ञान की सभा में साक्षात् भक्ति और सच्चिदानंद शरीर धारण करके विराजमान हैं॥
जैसे ही भरत जी ने ये दर्शय देखा है तो आँखों से आंसू बहने लगे है और भरत जी कहते हैं-
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥ हे नाथ! रक्षा कीजिए, हे गुसाईं! रक्षा कीजिए’ ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े॥
अब भरत की आवाज लक्ष्मण ने पहले सुनी और लक्ष्मण भूमि में हाथ रख कर श्री राम से कह रहे हैं – भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥ हे रघुनाथजी! भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। आप देखो इनकी ओर! मुझे क्षमा कर दो।
मैं ही गलती कर रहा था भरत तो साक्षात प्रेम की मूर्ति है। जैसे ही राम जी ने सुना है उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥ यह सुनते ही श्री रघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण॥
कृपा निधान श्री रामचन्द्रजी ने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया! जिस प्रकार कृष्ण जी ने सुदामा को लगाया था।