संक्षिप्त रामायण(72)
मुनि के वचन
मुनि के वचन सुनकर श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे नाथ! उपाय तो आप ही के हाथ है॥ आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरह से आपकी आज्ञा का पालन करेगा। मुनि कहते है राम! तुम भरत के प्रेम को देखकर कुछ कहो। मुझसे अब कुछ नही कहा जाता।
श्री राम जी कहते हैं- हे नाथ! आपकी सौगंध और पिताजी के चरणों की दुहाई है विश्वभर में भरत के समान कोई भाई हुआ ही नहीं॥ छोटा भाई जानकर भरत के मुँह पर उसकी बड़ाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती है। फिर भी मैं तो यही कहूँगा कि भरत जो कुछ कहें, वही करने में भलाई है। ऐसा कहकर श्री रामचन्द्रजी चुप हो रहे।
तब मुनि भरतजी से बोले- भरत! सब संकोच त्यागकर अपने मन की बात कहो।
भरत जी हाथ जोड़कर बोले की हे नाथ! मेरा कहना तो मुनिनाथ ने कह दिया। इससे अधिक मैं क्या कहूँ? बचपन में ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा।
मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते रहे हैं॥ मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुँह नहीं खोला। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए॥ लेकिन विधाता ने उस नीच माता के बहाने मेरे और स्वामी के बीच भेद पैदा कर दिया।
माताएँ व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं। अवधपुरी के नर-नारी दुःसह ताप से जल रहे हैं॥ मैं ही इन सारे अनर्थों का मूल हूँ, यह सुन और समझकर मैंने सब दुःख सहा है।
ये बात सुनकर रामजी बोले–मेरे भाई! तुम अपने हृदय में व्यर्थ ही ग्लानि करते हो। जीव की गति को ईश्वर के अधीन जानो। मेरी नजर में तीनों कालों और तीनों लोकों के सब पुण्यात्मा पुरुष तुम से नीचे हैं।
हे भरत! तुम्हारा नाम स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच और समस्त अमंगलों के समूह मिट जाएँगे तथा इस लोक में सुंदर यश और परलोक में सुख प्राप्त होगा॥ तुम मन को प्रसन्न कर और संकोच को त्याग कर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूँ। रामजी का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया॥
लेकिन देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना-बनाया काम बिगड़ना ही चाहता है।
देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा- भरतजी के चरणों का प्रेम जगत में समस्त शुभ मंगलों का मूल है॥ तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई है, तो अब सोच छोड़ दो। विधाता ने बात बना दी॥
तदनन्तर भरतजी दोनों करकमलों को जोड़कर प्रणाम करके बोले-हे स्वामी! हे कृपा के समुद्र! हे अन्तर्यामी! अब मैं क्या कहूँ और क्या कहाऊँ? मैं मिथ्या डर से ही डर गया था। हे नाथ! आपके लौटने में सभी का स्वार्थ है और आपकी आज्ञा पालन करने में करोड़ों प्रकार से कल्याण है।
हे देव! आप मेरी एक विनती सुनकर, फिर जैसा उचित हो वैसा ही कीजिए। राजतिलक की सब सामग्री सजाकर लाई गई है, जो यदि आपका मन माने तो उसे सफल कीजिए।
छोटे भाई शत्रुघ्न समेत मुझे वन में भेज दीजिए और आप अयोध्या लौट जाइये। और अगर आप अयोध्या नही जाना चाहते हैं तो लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को लौटा दीजिए और मैं आपके साथ चलूँगा।
अथवा हम तीनों भाई वन चले जाएँ और हे श्री रघुनाथजी! आप श्री सीताजी सहित लौट जाइए। हे दयासागर! जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न हो, वही कीजिए॥ आप जैसी आज्ञा करेंगे हम सभी वही मानेंगे। क्योंकि आप स्वामी हो और हम आपके दास हैं।