संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
राम और नारद संवाद(अध्याय९५)
अब तक आपने पढ़ा की भगवान ने सबरी पर कृपा है। फिर भगवान सबरी माँ से कहते हैं आपको यदि सीता जी के बारे में कुछ जानकारी है तो कृपा करके बताइये?
शबरी ने कहा आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं! हे रघुनाथजी! आप पंपा नामक सरोवर को जाइए। वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा।
इसके बाद सबरी ने भगवान् के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता।
तुलसीदास जी कहते हैं जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन! तू ऐसे प्रभु को भूलकर सुख चाहता है?
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना।
भगवान शिव माँ पार्वती से कहते हैं- हे उमा! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ- हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न की भाँति झूठा है।
श्री रामचंद्रजी ने उस वन को भी छोड़ दिया और वे आगे चले। फिर प्रभु श्री रामजी पंपा नामक सुंदर और गहरे सरोवर के तीर पर गए।उस झील के समीप मुनियों ने आश्रम बना रखे हैं। श्री रामजी ने अत्यंत सुंदर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया। एक सुंदर उत्तम वृक्ष की छाया देखकर श्री रघुनाथजी छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित बैठ गए।
भगवान इस समय विरह में है। सीता जी के वियोग में बैठे हुए हैं। भगवान् को विरहयुक्त देखकर नारदजी के मन में विशेष रूप से सोच हुआ। मेरे ही शाप को के कारण श्री रामजी दुःख उठा रहे हैं। नारद जी हाथ में वीणा लेकर अब भगवान से मिलने आये हैं। और भगवान को प्रणाम किया है। भगवान ने नारदजी को ह्रदय से लगा लिया है। नारद जी महाराज अब नाम की महिमा कहते हैं।
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका। हे नाथ! रामनाम सब नामों से बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो । नाम रूपी शिकारी पाप रूपी पक्षियों को तुरंत मार देते हैं।
फिर नारद जी पूछते हैं – तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा॥ तब मैं विवाह करना चाहता था। हे प्रभु! आपने मुझे किस कारण विवाह नहीं करने दिया?
और भोले नाथ विवाह नही करना चाहते थे आपने जबरदस्ती उनका विवाह करवा दिया।
भगवान मुस्कुरा कर बोले, देखो नारद जी , शादी करके मैं भी जंगल में भटक रहा हूँ। क्या मेरी हालत देख कर अभी भी नही समझ रहे हो की क्यों नही करने दिया?
भगवान कहते यदि तुम्हारी शादी हो जाती तो तुम पतित हो जाते और तुम्हारा सारा भजन नष्ट हो जाता और भोले नाथ में वो सामर्थ है वो गृहस्थ में रहकर भी विरक्त हैं। और मेरा तो ये स्वभाव है नारद
राम और नारद संवाद
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥ करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी। मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूँ कि जो समस्त आशा-भरोसा छोड़कर केवल मुझको ही भजते हैं,मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूँ, जैसे माता बालक की रक्षा करती है।
श्री रघुनाथजी के सुंदर वचन सुनकर मुनि का शरीर पुलकित हो गया और नेत्र भर आए।कहो तो किस प्रभु की ऐसी रीती है, जिसका सेवक पर इतना ममत्व और प्रेम हो॥
फिर नारद जी ने भगवान से संतों के लक्षण पूछे हैं।
श्री रामजी ने कहा- हे मुनि! सुनो, मैं संतों के वे गुण बताता हूँ ,जिनके कारण मैं उनके वश में रहता हूँ।
जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इन छह विकारों को जीत कर मेरी भक्ति करते हैं। मेरे चरण कमलों को छोड़कर उनको न देह ही प्रिय होती है, न घर ही॥ जो सरल स्वभाव के होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं। वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियम में रत रहते हैं और गुरु, गोविंद तथा ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम रखते हैं। भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते। सदा मेरी लीलाओं को गाते-सुनते हैं और बिना ही कारण दूसरों के हित में लगे रहने वाले होते हैं। हे मुनि! सुनो, संतों के जितने गुण हैं, उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते॥ इन संतो के मैं वश में रहता हूँ।
यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिए। भगवान् के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं- दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग। भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग।
युवती स्त्रियों का शरीर दीपक की लौ के समान है, हे मन! तू उसका पतिंगा न बन। काम और मद को छोड़कर श्री रामचंद्रजी का भजन कर और सदा सत्संग कर।





