संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
दशरथ और ककई कथा
अब ककई कोपभवन में जाकर लेट गई। जब राजा ने पूछा की ककई कहाँ है? तब पता चल की ककई तो कोप भवन में हैं।
कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ। कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनका पाँव आगे को नहीं पड़ता। राजा डरते-डरते अपनी प्यारी कैकेयी के पास गए। कैकेयी जमीन पर पड़ी है। पुराना मोटा कपड़ा पहने हुए है। कुछ संत तो कहते हैं की ये कपडे और किसी के नही मंथरा के ही हैं। शरीर के आभूषणों को उतारकर फेंक दिया है।
राजा उसके पास जाकर कोमल वाणी से बोले- हे प्राणप्रिये! किसलिए रूठी हो? तुम्हे कुछ चाहिए? क्या मुझसे कोई गलती हो गई? हे प्रिये! किसने तेरा अनिष्ट किया? कह, किस कंगाल को राजा कर दूँ या किस राजा को देश से निकाल दूँ?॥ तू अपनी मनचाही बात माँग ले लेकिन हे प्रिये! जल्दी इस बुरे वेष को त्याग दे।
अब ककई बोली है- हे प्रियतम! आप माँग-माँग तो कहा करते हैं, पर देते-लेते कभी कुछ भी नहीं। आपको याद है आपने 2 वरदान देने को कहा था। जब मैंने आपकी जान युद्ध में बचाई थी।
राजा कहते है-हाँ प्रिये मुझे याद है तुम दो के बदले चार माँग लो। रघुकुल में सदा से यह रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएँ, पर वचन नहीं जाता। रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई॥
ककई कहती है नही,मुझे भरोसा नही है, क्या पता तुम दो या ना दो। पहले आप राम की सौगंध खाओ और फिर वचन दो।
ककई के 2 वरदान
अब राजा दशरथ ने राम की सौगंध खा ली है तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥ और बोल दिया है जो मांगना है तू मांग ले।
अब ककई ने मांग लिया – पहला तो ये की – राम का राज्यभिषेक रोक दिया जाये और मेरे पुत्र भरत का राजतिलक हो। देहु एक बर भरतहि टीका॥
और दूसरा – तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से राम को 14 वर्ष का वनवास हो जाये।
जब राजा दशरथ ने सुना तो काँप गए है और कहते हैं की तू तो राम से प्रेम करती है इतना प्रेम तो मैं भी नही करता जितना तू करती है। ये तू कह रही है। मुझे मालूम है की तू मजाक कर रही है।
ककई बोली – नही, महाराज मेरा एक एक शब्द खरा है। मैं किसी तरह का कोई मजाक नही कर रही हूँ।
राजा बोले- देख मैं भरत को राजा बना दूंगा उसे गद्दी पर भी बिठा दूंगा पर तू दूसरा वर मत मांग। और रो पड़े हैं। दशरथ जी कहते हैं-
जिऐ मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥ कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥
अर्थ: मछली चाहे बिना पानी के जीती रहे और साँप भी चाहे बिना मणि के दीन-दुःखी होकर जीता रहे, परन्तु मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, यदि राम वन में चले गए ना तो मैं जीवित नही रह पाउँगा। मेरा जीवन श्री राम के दर्शन के अधीन है। बहुत समझाया हैं ककई को। और दशरथ जी ने चरण तक पकड़ लिए हैं। लेकिन ककई नही मानी हैं।
अब ककई ने साफ़ कह दिया – होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं। मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥
सबेरा होते ही मुनि का वेष धारण कर यदि राम वन को नहीं जाते, तो हे राजन्! मन में निश्चय समझ लीजिए कि मेरा मरना होगा और आपका अपयश!
राजा करोड़ों प्रकार से बहुत तरह से समझाकर और यह कहकर कि तू क्यों सर्वनाश कर रही है, पृथ्वी पर गिर पड़े। राजा राम-राम रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंख के बिना बेहाल हो। मन में सोच रहे हैं की सवेरा ना हो और कोई जाकर श्री रामचन्द्रजी से यह बात न कहे॥ दशरथ जी मूर्छित हो गए हैं।
आज विलाप करते-करते ही राजा को सबेरा हो गया! राज द्वार पर वीणा, बाँसुरी और शंख की ध्वनि होने लगी। भाट लोग विरुदावली पढ़ रहे हैं और गवैये गुणों का गान कर रहे हैं। सुनने पर राजा को वे बाण जैसे लगते हैं॥
लेकिन सभी सोच रहे हैं की ऐसा क्या हो गया की अवधपति दशरथजी अभी तक नहीं जागे? अब सुमंत्र राजा को जगाने के लिए राजमहल में गए। पर महल को भयानक देखकर वे जाते हुए डर रहे हैं। ऐसा लगता है मानो दौड़कर काट खाएगा, उसकी ओर देखा भी नहीं जाता। पूछने पर कोई जवाब नहीं देता। वे उस महल में गए, जहाँ राजा और कैकेयी थे। राजा की दशा देखकर तो वे सूख ही गए॥
तब कैकेयी बोली- राजा को रातभर नींद नहीं आई, इसका कारण जगदीश्वर ही जानें। इन्होंने राम राम रटकर सबेरा कर दिया, परन्तु इसका भेद राजा कुछ भी नहीं बतलाते॥ तुम जल्दी राम को बुला लाओ।
सुमंत्र राम को लेने जा रहे हैं पर उनके पैर आगे नही बढ़ रहे है सोच से व्याकुल है की महाराज दशरथ ऐसी क्या बात कहेंगें? जैसे तैसे सुमत्र वहां पहुंचे हैं और रामजी को कहा- आपके पिताजी महाराज दशरथ ने आपको याद किया है।