संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
भरत और निषादराज गुह मिलन(अध्याय64)
सब श्रृंगवेरपुर के समीप जा पहुँचे। निषादराज ने सब समाचार सुने, तो वह दुःखी होकर हृदय में विचार करने लगा- क्या कारण है जो भरत वन को जा रहे हैं? कहीं वो श्री राम से युद्ध करने तो नहीं जा रहे हैं? फिर मन में विचार करते हैं की भरत जी चाहते होंगे कि छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री राम को मारकर सुख से निष्कण्टक राज्य करूँगा।
ऐसा विचारकर गुह ने अपनी जाति वालों से कहा कि सब लोग सावधान हो जाओ। भरत से युद्ध में लड़कर मरने के लिए तैयार हो जाओ। युद्ध में मरण, फिर गंगाजी का तट, श्री रामजी का काम और क्षणभंगुर शरीर , भरत श्री रामजी के भाई और राजा और मैं नीच सेवक- बड़े भाग्य से ऐसी मृत्यु मिलती है॥
निषादराज ने मुनिराज वशिष्ठजी को देखकर अपना नाम बतलाकर दूर ही से दण्डवत प्रणाम किया। मुनीश्वर वशिष्ठजी ने उसको राम का प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया और भरतजी को समझाकर कहा ॥
यह श्री राम का मित्र है, इतना सुनते ही भरतजी ने रथ त्याग दिया। वे रथ से उतरकर प्रेम में उमँगते हुए चले। निषादराज गुह ने भरत जी को दंडवत प्रणाम किया। दण्डवत करते देखकर भरतजी ने उठाकर उसको छाती से लगा लिया।
फिर इस गुह को तो स्वयं श्री रामचन्द्रजी ने हृदय से लगा लिया और कुल समेत इसे जगत्पावन बना दिया॥
राम सखा निषादराज से प्रेम के साथ मिलकर भरतजी ने कुशल, मंगल और क्षेम पूछी।
भरतजी का शील और प्रेम देखकर निषाद प्रेममुग्ध होकर देह की सुध भूल गया॥ फिर धीरज धरकर भरतजी के चरणों की वंदना करके प्रेम के साथ हाथ जोड़कर विनती करने लगा- हे प्रभो!
कुशल के मूल आपके चरण कमलों के दर्शन कर मैंने तीनों कालों में अपना कुशल जान लिया। मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूँ और लोक-वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूँ। पर जब से श्री रामचन्द्रजी ने मुझे अपनाया है, तभी से मैं विश्व का भूषण हो गया॥
अब भरत जी महाराज पूछते हैं की आप मुझे उस जगह लेके जाओ जहाँ पर मेरे राम सोये थे। जहाँ पर मेरे प्रभु ने एक रात गुजारी थी। अब निषादराज भरत जी को उस जगह पर ले गए हैं। तो क्या देखते हैं की जिन पत्तों पर, जिन तिनकों पर राम सोये थे वहां तो मंदिर बन गया था। चारों और से उस स्थान को संरक्षित कर दिया था। कोई छुए ना, कोई छेड़े ना वो स्थान वैसा का वैसा था।
लोग वहां पर मस्तक टेक रहे थे। जब भरत जी ने उस स्थान को देखा तो साष्टांग प्रणाम है और वे उस स्थान की परिक्रमा करके प्रणाम करते हैं। कहते हैं यहाँ मेरे राम सोये हैं तो ये स्थान मेरे लिए एक अयोध्या से कम नही है।
इस प्रकार रातभर सब लोग जागते रहे। सवेरा होते है यहाँ से फिर चले हैं। निषादराज को आगे करके पीछे सब माताओं की पालकियाँ चलाईं। छोटे भाई शत्रुघ्नजी को बुलाकर उनके साथ कर दिया।
फिर ब्राह्मणों सहित गुरुजी ने गमन किया॥ प्रेम में उमँग-उमँगकर सीताराम-सीताराम कहते हुए भरतजी ने तीसरे पहर प्रयाग में प्रवेश किया। उनके चरणों में छाले कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूँदें चमकती हों। भरतजी आज पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सुनकर सारा समाज दुःखी हो गया। सब लोगों ने यहाँ पर स्नान किया है।
भरत जी ने यहाँ अपने आप को कोसा है। भरत जी के मन में केवल यही बात है की राम मेरे कारण वन में गए हैं। भरत जी कहते हैं -मुझे न अर्थ की रुचि है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ। जन्म-जन्म में मेरा श्री रामजी के चरणों में प्रेम हो, बस, यही वरदान माँगता हूँ, दूसरा कुछ नहीं॥
भरतजी के वचन सुनकर बीच त्रिवेणी में से सुंदर मंगल देने वाली कोमल वाणी हुई। हे तात भरत! तुम सब प्रकार से साधु हो। श्री रामचंद्रजी के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्री रामचंद्रजी को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है॥
त्रिवेणीजी के अनुकूल वचन सुनकर भरतजी का शरीर पुलकित हो गया, हृदय में हर्ष छा गया। भरतजी धन्य हैं, कहकर देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे॥