May 25, 2025 10:00 am

भरत जी और मुनि भारद्वाज मिलन

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संक्षिप्त रामायण(भार्गव)

भरत जी और मुनि भारद्वाज मिलन(अध्याय65)

इसके बाद भरत जी मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी के आश्रम पर आये हैं। भरत जी ने मुनि को दंडवत प्रणाम किया है। उन्होंने दौड़कर भरतजी को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। भरतजी के शील और संकोच को देखकर ऋषि बोले- भरत! सुनो, हम सब खबर पा चुके हैं। विधाता के कर्तव्य पर कुछ वश नहीं चलता।

सारे अनर्थ की जड़ तो श्री रामचन्द्रजी का वनगमन है, जिसे सुनकर समस्त संसार को पीड़ा हुई। हे भरत! सुनो, श्री रामचन्द्र के मन में तुम्हारे समान प्रेम पात्र दूसरा कोई नहीं है। हे तात! तुम व्यर्थ ही हृदय में ग्लानि कर रहे हो। पारस पाकर भी तुम दरिद्रता से डर रहे हो!

भरद्वाज मुनि ने यहाँ तक कह दिया – सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं॥ सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा॥

भरत मैं आपसे झूठ नही कहूँगा। आज तक मैंने जीवन में जितनी भी साधना की उसका फल था राम, लक्ष्मण और जानकी जी का दर्शन पाना । और उनके दर्शनों का फल ये मिला की मुझे आज तुम्हारा दर्शन हो गया। तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित प्रयाग सुभाग हमारा॥

यानि भगवन के दर्शन का फल है भरत जैसे महापुरुष का दर्शन। ये केवल भगवन के दर्शनों का फल है।

अब भरत जी महाराज बोले हैं- हे गुरुदेव! यहाँ मुनियों का समाज है और फिर तीर्थराज है। अगर में कुछ भी असत्य कहूँगा तो आपसे छिपा नही रहेगा। मुझे माता कैकेयी की करनी का कुछ भी सोच नहीं है और ना इस बात का दुःख है कि जगत मुझे नीच समझेगा॥

न ही मुझे पिताजी के मरने का ही शोक है, क्योंकि उन्होंने श्री रामचन्द्रजी के विरह में अपने क्षणभंगुर शरीर को त्याग दिया। पर जानते हो की मुझे क्या दुःख है?

भरत जी कहते हैं – दुःख है तो इस बात का है श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी पैरों में बिना जूती के मुनियों का वेष बनाए वन-वन में फिरते हैं॥ वे वल्कल वस्त्र पहनते हैं, फलों का भोजन करते हैं, पृथ्वी पर कुश और पत्ते बिछाकर सोते हैं और वृक्षों के नीचे निवास करके नित्य सर्दी, गर्मी, वर्षा और हवा सहते हैं।

इसी दुःख की जलन से निरंतर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न दिन में भूख लगती है, न रात को नींद आती है। मैंने मन ही मन समस्त विश्व को खोज डाला, पर इस कुरोग की औषध कहीं नहीं है। और जानते हो यह दुःख कब मिटेगा?

ये दुःख तभी मिट सकता है जब श्री रामचन्द्रजी वापिस अयोध्या लौट आएं और तभी अयोध्या बस सकती है, दूसरे किसी उपाय से नहीं॥

मुनि जी भरत जी महाराज कहते हैं – हे तात! अधिक सोच मत करो। श्री रामचन्द्रजी के चरणों का दर्शन करते ही सारा दुःख मिट जाएगा॥

फिर मुनि ने सबको खाने के लिए कंद-मूल और फल दिए हैं। मुनि ने सोचा की भरत जी महाराज बहुत बड़े-बड़े लोगों के साथ यहाँ आये हैं। माताये भी हैं और नगरवासी भी हैं। मुनि कहते हैं अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिए।

यह सुनकर ऋद्धियाँ और अणिमादि सिद्धियाँ आ गईं हे गोसाईं! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें॥ मुनिराज ने प्रसन्न होकर कहा- छोटे भाई शत्रुघ्न और समाज सहित भरतजी श्री रामचन्द्रजी के विरह में व्याकुल हैं, इनका आतिथ्य सत्कार करके इनके श्रम को दूर करो॥

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