December 8, 2025 8:40 pm

सुग्रीव राज्याभिषेक

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संक्षिप्त रामायण(भार्गव)

सुग्रीव राज्याभिषेक(अध्याय१०२)

श्री रामचंद्रजी ने छोटे भाई लक्ष्मण को समझाकर कहा कि तुम जाकर सुग्रीव को राज्य दे दो। लक्ष्मणजी ने तुरंत ही सब नगरवासियों को और ब्राह्मणों के समाज को बुला लिया और उनके सामने सुग्रीव को राज्य और अंगद को युवराज पद दिया।

सुग्रीव ने भगवान से प्रार्थना कि- आप मेरे साथ आकर रहो।

फिर प्रभु ने कहा- हे वानरपति सुग्रीव! सुनो, मैं चौदह वर्ष तक गाँव बस्ती में नहीं जाऊँगा। ग्रीष्मऋतु बीतकर वर्षाऋतु आ गई। अतः मैं यहाँ पास ही पर्वत पर टिका रहूँगा। तुम अंगद सहित राज्य करो। मेरे काम का हृदय में सदा ध्यान रखना। जैसे ही चार महीनेचातुर्मास बीतें तुम यहाँ आ जाना। तदनन्तर जब सुग्रीवजी घर लौट आए, तब श्री रामजी प्रवर्षण पर्वत पर रहने लगे।

वर्षा ऋतू वर्णन

फिर सुंदर वर्षा ऋतू का वर्णन किया है। जिसमे श्री राम छोटे भाई लक्ष्मणजी से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान की अनेकों कथाएँ कहते हैं। रामजी कहते हैं- हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं। छोटी नदियाँ भरकर किनारों को तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं।

पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो। चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अन्न से युक्त लहराती हुई खेती से हरी-भरी पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुष की संपत्ति। रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियों का समाज आ जुटा हो।

शरद ऋतू वर्णन

इसके बाद शरद ऋतू का वर्णन आया है। रामजी कहते हैं- हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। न कीचड़ है न धूल? बिना बादलों का निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं।

सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा। जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती।

श्री राम जी कहते हैं – लक्ष्मण! वर्षा बीत गई, निर्मल शरद्ऋतु आ गई, परंतु सीता की कोई खबर नहीं मिली।

सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी। सुग्रीव ने भी मेरी सुध भुला दी क्योंकि उसे राज्य, खजाना, नगर और स्त्री सब मिल गया। आज रामजी को दुःख हो रहा है और क्रोध आ रहा है कि सुग्रीव सुख पाकर मुझे कैसे भूल गया?।

लक्ष्मणजी ने जब प्रभु को क्रोधयुक्त जाना, तब उन्होंने धनुष चढ़ाकर बाण हाथ में ले लिए।

रामजी लक्ष्मण से कहते हैं- सखा सुग्रीव को केवल भय दिखलाकर ले आओ उसे मारना मत । क्योंकि रामजी जानते हैं अगर लक्ष्मण को क्रोध आ गया तो ये जान से ही मरेगा।

सुग्रीव और श्री रामजी

यहाँ किष्किन्धा नगरी में पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार्य को भुला दिया। और साम, दान, दंड, भेद चारों प्रकार की नीति के बारे में बताया। हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। और कहा- सांसारिक विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया। अब हे पवनसुत! जहाँ-तहाँ वानरों के यूथ रहते हैं, वहाँ दूतों के समूहों को भेजो। और कहला दो कि एक पखवाड़े में पंद्रह दिनों में जो न आ जाएगा, उसका मेरे हाथों वध होगा।

तब हनुमान्‌जी ने दूतों को बुलाया और सबका बहुत सम्मान करके सबको समझाया कि सारे वानर 15 दिन के भीतर एकत्र हो जाओ। सब बंदर चरणों में सिर नवाकर चले।

इसी समय लक्ष्मणजी नगर में आए। उनका क्रोध देखकर बंदर जहाँ-तहाँ भागे। लक्ष्मणजी ने धनुष चढ़ाकर कहा कि नगर को जलाकर अभी राख कर दूँगा। अंगद जी लक्ष्मण के सामने आये हैं। अंगद ने इन्हे प्रणाम किया है और क्रोध शांत करने कि कोशिश कि है।

जब सुग्रीव ने सुना कि लक्ष्मण बहुत क्रोध में है तब भय से अत्यंत व्याकुल होकर कहा- हे हनुमान्‌ सुनो, तुम तारा को साथ ले जाकर विनती करके लक्ष्मण को समझा-बुझाकर शांत करो।

हनुमान्‌जी ने तारा सहित जाकर लक्ष्मणजी के चरणों की वंदना की और प्रभु के सुंदर यश का बखान किया। वे विनती करके उन्हें महल में ले आए तथा चरणों को धोकर उन्हें पलँग पर बैठाया। तब वानरराज सुग्रीव ने उनके चरणों में सिर नवाया और लक्ष्मणजी ने हाथ पकड़कर उनको गले से लगा लिया।

सुग्रीव ने कहा- नाथ विषय सम मद कछु नाहीं। मुनि मन मोह करइ छन माहीं। हे नाथ! विषय के समान और कोई मद नहीं है। यह मुनियों के मन में भी क्षणमात्र में मोह उत्पन्न कर देता है फिर मैं तो विषयी जीव ही ठहरा।

इस प्रकार अनेकों तरह से लक्ष्मण जी के क्रोध को शांत किया है फिर हनुमान जी ने बताया कि सभी ओर दूतों को वानरों को लेन के लिए भेजा गया है। इस प्रकार लक्ष्मण जी को संतोष हुआ है।

अब अंगद आदि वानरों को साथ लेकर और श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मणजी को आगे करके अर्थात्‌ उनके पीछे-पीछे सुग्रीव हर्षित होकर चले और जहाँ रघुनाथजी थे वहाँ आए। और सुग्रीव रामजी के चरणों में लेट गए हैं। और हाथ जोड़कर कहते हैं – हे नाथ! मुझे कुछ भी दोष नहीं है।

अतिसय प्रबल देव तव माया। छूटइ राम करहु जौं दाया। हे देव! आपकी माया अत्यंत ही प्रबल है। आप जब दया करते हैं, हे राम! तभी यह छूटती है। मुझे आप क्षमा कर दीजिये।

तब श्री रघुनाथजी मुस्कुराकर बोले- हे भाई! तुम मुझे भरत के समान प्यारे हो। अब मन लगाकर वही उपाय करो जिस उपाय से सीता की खबर मिले।

इस प्रकार बातचीत हो रही थी कि वानरों के यूथ झुंड आ गए। अनेक रंगों के वानरों के दल सब दिशाओं में दिखाई देने लगे। शिवजी कहते हैं- हे उमा! वानरों की वह सेना मैंने देखी थी। उसकी जो गिनती करना चाहे वह महान्‌ मूर्ख है। सब वानर आ-आकर श्री रामजी के चरणों में मस्तक नवाते हैं और भगवान के श्रीमुख के दर्शन करके कृतार्थ होते हैं। सेना में एक भी वानर ऐसा नहीं था जिससे श्री रामजी ने कुशल न पूछी हो। भगवान ने सबको आशीर्वाद दिया है।

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