संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
हनुमान-रावण संवाद
हनुमान्जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा। फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया। लंकापति रावण ने कहा- रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मुझे कानों से नहीं सुना? तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है?
हनुमान्जी ने कहा हे रावण! सुन, जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं,जिन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया। जिन्होंने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला, जो सब के सब अतुलनीय बलवान् थे, जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत् को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूँ।
हनुमान जी कहते हैं- मैंने तुम्हारे बारे में भी सुना है। सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था। हनुमान्जी के वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी।
मुझे भूख लगी थी इसलिए मैंने फल खाए और बंदर के स्वभाव के कारण वृक्षों को तोडा। और जब दुष्ट राक्षस जब मुझे मारने लगे। तो मैंने भी उन्हें मारा। इस मारा मारी में कुछ यमलोक पहुंच गए। और अपनी मर्जी से ही मैं बंधा हूँ। काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकीजी को दे दो।
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू। तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो।
हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है। अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान् श्री रामचंद्रजी का भजन करो।
रावण बहुत हँसकर बोला कि हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला! रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गई है।
हनुमान्जी ने कहा- इससे उलटा ही होगा अर्थात् मृत्यु तेरी निकट आई है, मेरी नहीं
रावण क्रोध से आग बबूला हो गया और बोला- अरे! इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौड़े उसी समय मंत्रियों के साथ विभीषणजी वहाँ आ पहुँचे।
विभीषण जी कहते हैं -दूत को मारना नहीं चाहिए, यह नीति के विरुद्ध है। हे गोसाईं। कोई दूसरा दंड दिया जाए। सबने कहा- भाई! यह सलाह उत्तम है।
यह सुनते ही रावण हँसकर बोला- अच्छा तो, बंदर को अंग-भंग करके भेज दिया जाए। किसी ने कहा महाराज हमने सुना है की बंदर को अपनी पूंछ से बहुत प्यार होता है। इसलिए तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फिर आग लगा दो।
तो यह बात सुनते ही हनुमान्जी मन में मुस्कुराए। जब हनुमान जी की पूंछ पर कपडा लपेटने लगे तो पूंछ लम्बी होती जा रही है। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।
पूंछ के लपेटने में इतना कपड़ा और घी-तेल लगा कि नगर में कपड़ा, घी और तेल सब खत्म हो गए। फिर जैसे तैसे हनुमान जी की पूंछ में आग लगा दी। सभी नगरवासी तमाशा बने तमाशा देख रहे हैं। अब हनुमान जी लंका जलने लगे। वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं। नगर जल रहा है लोग बेहाल हो गए हैं। आग की करोड़ों भयंकर लपटें झपट रही हैं। सभी कहते हैं- इस अवसर पर हमें कौन बचाएगा? यही पुकार सुनाई पड़ रही है। हमने तो पहले ही कहा था कि यह वानर नहीं है, वानर का रूप धरे कोई देवता है!
साधु के अपमान का यह फल है कि नगर, अनाथ के नगर की तरह जल रहा है। हनुमान्जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण का घर नहीं जलाया। और हनुमान जी खुद भी नही जले हैं। हनुमान्जी ने उलट-पलटकर सारी लंका जला दी।
फिर वे समुद्र में कूद पड़े। और अपनी पूंछ की आग बुझा ली।
हनुमान का लंका दहन बाद राम के पास लौटना
अब तक आपने पढ़ा की हनुमान जी ने लंका को जला दिया है और समुद्र में अपनी पूंछ बुझा दी है। पूँछ बुझाकर, थकावट दूर करके और फिर छोटा सा रूप धारण कर हनुमान्जी श्री जानकीजी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए॥ और कहते हैं- मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥ चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥
हे माता! आप मुझे कोई चिह्न दीजिए, जैसे श्री रघुनाथजी ने मुझे दिया था। तब सीताजी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमान्जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया॥
सीता जी हनुमान जी से कहती है – हनुमान! इंद्रपुत्र जयंत की कथा सुनाना और प्रभु को उनके बाण का प्रताप समझाना । यदि महीने भर में नाथ न आए तो फिर मुझे जीती न पाएँगे॥
हनुमान जी ने कहा की राम जरूर आएंगे और यहाँ से विदा ली है। हनुमान जी समुद्र लांग कर इस पार आये और हनुमान जी सब वानरों आदि से मिले हैं। सबने जान लिया है की हनुमान जी रामचन्द्रजी का काज कर आये हैं।
अब सभी मिल सुग्रीव के पास आये हैं। सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया। कपिराज सुग्रीव सभी से बड़े प्रेम के साथ मिले। तब वानरों ने उत्तर दिया-श्री रामजी की कृपा से कार्य में विशेष सफलता हुई है। हे नाथ! हनुमान ने सब कार्य किया और सब वानरों के प्राण बचा लिए। यह सुनकर सुग्रीवजी हनुमान्जी से फिर मिले और सब वानरों समेत श्री रघुनाथजी के पास चले॥
श्री रामजी ने जब वानरों को कार्य किए हुए आते देखा तब उनके मन में विशेष हर्ष हुआ। सब वानर जाकर उनके चरणों पर गिर पड़े॥ रामजी ने सबसे कुशल मंगल पूछा? वानरों ने कहा- हे नाथ! आपके चरण कमलों के दर्शन पाने से अब कुशल है॥
जाम्बवान् ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए। हे नाथ! प्रभु की कृपा से सब कार्य हुआ। आज हमारा जन्म सफल हो गया॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥ पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान् ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जाम्बवान् ने हनुमान्जी के सुंदर चरित्र श्री रघुनाथजी को सुनाए॥ और ये भी बता दिया सीता माता की खोज भी हो गई और रावण की लंका भी जल गई।





