संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
हनुमान और भरत कथा
जब हनुमानजी आकाश मार्ग से जा रहे थे श्री राम भाई भरतजी ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने एक बाण मारा। बाण लगते ही हनुमान्जी ‘राम, राम, रघुपति’ का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
प्रिय वचन रामनाम सुनकर भरतजी उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान्जी के पास आए। हनुमान्जी को व्याकुल देखकर उन्होंने हृदय से लगा लिया। बहुत तरह से जगाया, पर वे जागते न थे! वे मन में बड़े दुःखी हुए और उनके नेत्रों में जल भर आया वे बोले- यदि मन, वचन और शरीर से श्री रामजी के चरणकमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो, और यदि श्री रघुनाथजी मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। जौं मोरें मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया। तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला।
यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमान्जी कोसलपति श्री रामचंद्रजी की जय हो, जय हो कहते हुए उठ बैठे। भरतजी ने वानर हनुमान्जी को हृदय से लगा लिया। भारत जी के पूछने पर वानर हनुमान्जी ने संक्षेप में सब कथा कही। सुनकर भरतजी दुःखी हुए और मन में पछताने लगे। हा दैव! मैं जगत् में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया।
फिर धीरज धरकर बोले- मको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। तुम पर्वत सहित मेरे बाण पर चढ़ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम श्री रामजी हैं।
भरतजी की यह बात सुनकर एक बार तो हनुमान्जी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? किन्तु फिर श्री रामचंद्रजी के प्रभाव का विचार करके वे भरतजी के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले- हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरतजी के चरणों की वंदना करके हनुमान्जी चले।
वहाँ लक्ष्मणजी को देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्यों के अनुसार समान वचन बोले- आधी रात बीत चुकी है, हनुमान् नहीं आए। यह कहकर श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को उठाकर हृदय से लगा लिया। और बोले हे भाई! तुम मुझे कभी दुःखी नहीं देख सकते थे। तुम्हारा स्वभाव सदा से ही कोमल था। मेरे हित के लिए तुमने माता-पिता को भी छोड़ दिया। हे भाई! वह प्रेम अब कहाँ है? मेरे व्याकुलतापूर्वक वचन सुनकर उठते क्यों नहीं? स्त्री के लिए प्यारे भाई को खोकर, मैं कौन सा मुँह लेकर अवध जाऊँगा? मैं माता को क्या उत्तर दूंगा?
शिवजी कहते हैं हे उमा! श्री रघुनाथजी एक अद्वितीय और अखंड वियोगरहित हैं। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान् ने लीला करके मनुष्य की दशा दिखलाई है।
प्रभु के लीला के लिए किए गए प्रलाप को कानों से सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गए। इतने में ही हनुमान्जी आ गए, तब वैद्य सुषेण ने तुरंत उपाय किया, जिससे लक्ष्मणजी हर्षित होकर उठ बैठे।
प्रभु भाई को हृदय से लगाकर मिले। भालू और वानरों के समूह सब हर्षित हो गए। फिर हनुमान्जी ने वैद्य को उसी प्रकार वहाँ पहुँचा दिया, जिस प्रकार वे उस बार पहले उसे ले आए थे।
राम कुम्भकर्ण युद्ध कहानी
अब तक आपने पढ़ा की मेघनाद ने लक्ष्मण को शक्ति बाण मारा था। हनुमानजी संजीवनी पर्वत उठा कर लाये और लक्ष्मण जी ठीक हो गए। जब रावण ने सुना की लक्ष्मण ठीक हो गया है, तब उसने अत्यंत विषाद से बार-बार सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया और बहुत से उपाय करके उसने उसको जगाया।
कुंभकर्ण जगा उठ बैठा वह कैसा दिखाई देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुंभकर्ण ने पूछा- हे भाई! कहो तो, तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं?
रावण से शुरू से लेकर अंत तक अपनी सब करनी कह सुनाई। फिर कहा- वानरों ने सब राक्षस मार डाले। बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर डाला। दुर्मुख, देवशत्रु देवान्तक, मनुष्य भक्षक नरान्तक, भारी योद्धा अतिकाय और अकम्पन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर वीर रणभूमि में मारे गए।
रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण बिलखकर दुःखी होकर बोला- अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है? हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा। हे रावण! जिनके हनुमान् सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया।
हे भाई! अब तो अन्तिम बार अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ।
फिर रावण से करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाए। भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात बिजली गिरने के समान गरजा। कुंभकर्ण किला छोड़कर चला। सेना भी साथ नहीं ली।
उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को उठाकर उसने हृदय से लगा लिया और श्री रघुनाथजी का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे।
विभीषण ने कहा- हे भाई ! अच्छी सलाह देने पर भी रावण ने मुझे लात मारी। उसी ग्लानि के मारे मैं श्री रघुनाथजी के पास चला आया।
कुंभकर्ण ने कहा- छोटे भाई! सुन, रावण के सिर पर मृत्यु नाच रही है। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया।
मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर श्री रामजी का भजन करना। हे भाई! मैं काल मृत्यु के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता, इसलिए अब तुम जाओ।
भाई के वचन सुनकर विभीषण लौट गए और वहाँ आए, जहाँ त्रिलोकी के भूषण श्री रामजी थे। विभीषण ने कहा हे नाथ! पर्वत के समान विशाल देह वाला रणधीर कुंभकर्ण आ रहा है।