संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
भरतजी के हृदय में श्री सीता-रामजी का निवास(अध्याय76)
आपने पिछले पार्ट में पढ़ा की भरत जी, राम जी से अयोध्या वापिस चलने को कह रहे हैं इसी बीच जनक जी का आगमन हुआ है। और जनक जी ने भरत जी की खूब तारीफ की है। फिर प्रातःकाल दोनों राजसमाज जागे और नहा-नहाकर देवताओं की पूजा करने लगे। सभा फिर से एकत्र हुई है – सभी के मन में ये जिज्ञासा है की श्री राम अयोध्या लौटेंगे या नही।
भरत जी जनक जी से कहते हैं – हे प्रभो! आप हमारे पिता के समान प्रिय और पूज्य हैं और कुल गुरु श्री वशिष्ठजी के समान हितैषी तो माता-पिता भी नहीं है। विश्वामित्रजी आदि मुनियों और मंत्रियों का समाज है और आज के दिन ज्ञान के समुद्र आप भी उपस्थित हैं।
फिर भरत जी ने अपनी बात सबके सामने रखी की राम अयोध्या लौट जाये और राजा बने। ये सब मेरे कारण हुआ है इसलिए वन में सिर्फ मैं ही जाऊंगा।
ये बात सुनकर इन्द्रादि देवता डर गए और सोच रहे हैं की आज तो भरत ने काम बिगड़ ही दिया। फिर देवताओं ने सरस्वती से कहा की आप अपनी माया से भरतजी की बुद्धि को फेर दीजिए।
देवताओं की बात सुनकर सरस्वती बोली की- मुझसे कह रहे हो कि भरतजी की मति पलट दो! ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माया बड़ी प्रबल है! किन्तु वह भी भरतजी की बुद्धि की ओर देख भी नहीं सकती। और तुम कह रहे हो की भरत जी की बुद्धि पलट दो।
भरतजी के हृदय में श्री सीता-रामजी का निवास है। जहाँ सूर्य का प्रकाश है, वहाँ कहीं अँधेरा रह सकता है? ऐसा कहकर सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को चली गईं। अब देवता और अधिक व्याकुल हो गए। इन्द्र सोचने लगे कि काम का बनना-बिगड़ना सब भरतजी के हाथ है।
भरत जी बात सुनकर जनक जी और वसिष्ठ जी प्रेम में डूब गए। और जनक जी भी भरत से सहमत हो गए। और वसिष्ठ जी अब राम जी से पूछते हैं। अब वसिष्ठ जी कहते है- हे प्यारे राम! मेरा मत तो यह है कि तुम जैसी आज्ञा दो, वैसा ही सब करें!
यह सुनकर दोनों हाथ जोड़कर श्री रघुनाथजी सत्य, सरल और कोमल वाणी बोले- आपके और मिथिलेश्वर जनकजी जी के होते हुए मेरा कुछ कहना ही अनुचित होगा। आपकी और महाराज की जो आज्ञा होगी, मैं आपकी शपथ करके कहता हूँ वह सत्य ही सबको धारण करनी होगी।
राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत। श्री रामचन्द्रजी की शपथ सुनकर सभा समेत मुनि और जनकजी सकुचा गए ।अब सब लोग भरतजी का मुँह ताक रहे हैं। भरतजी ने सभा को संकोच के वश देखा।
भरतजी ने प्रणाम करके सबके प्रति हाथ जोड़े तथा श्री रामचन्द्रजी, राजा जनकजी, गुरु वशिष्ठजी और साधु-संत सबसे विनती की और कहा- आज मेरे इस अत्यन्त अनुचित बर्ताव को क्षमा कीजिएगा। मैं कोमल छोटे मुख से कठोर धृष्टतापूर्ण वचन कह रहा हूँ। हे प्रभु! आप पिता, माता, सुहृद् मित्र, गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और अन्तर्यामी हैं। मैं मोहवश प्रभु आप के और पिताजी के वचनों का उल्लंघन कर और समाज बटोरकर यहाँ आया हूँ।
मैंने ऐसा जगत में कोई भी नही देखा जो आपकी आज्ञा को नकार दे पर मैंने सब प्रकार से वही ढिठाई की, परन्तु प्रभु ने उस ढिठाई को स्नेह और सेवा मान लिया! आपकी मुझ पर बड़ी कृपा है। आपकी आज्ञा का पालन करना और आपकी सेवा करना बस यही काम श्रेष्ठ हैं। भरतजी ऐसा कहकर प्रेम के बहुत ही विवश हो गए और आँखों में प्रेम के आंसू आ गए। फिर भारत जी ने न्होंने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरणकमल पकड़ लिए।
राम जी का भरत को उपदेश
कृपासिन्धु श्री रामचन्द्रजी ने सुंदर वाणी से भरतजी का सम्मान करके हाथ पकड़कर उनको अपने पास बिठा लिया। तुलसीदासजी कहते हैं- सब लोग भरतजी का भाषण सुनकर व्याकुल हो गए और ऐसे सकुचा गए जैसे रात्रि के आगमन से कमल!
अब श्री राम जी कहते है मेरे भरत! तुम धर्म की धुरी को धारण करने वाले हो, लोक और वेद दोनों के जानने वाले और प्रेम में प्रवीण हो। कर्म से, वचन से और मन से निर्मल तुम्हारे समान तुम्हीं हो। गुरुजनों के समाज में और ऐसे कुसमय में छोटे भाई के गुण किस तरह कहे जा सकते हैं? तुम सूर्यकुल की रीति को, सत्यप्रतिज्ञ पिताजी की कीर्ति और प्रीति को, समय, समाज और गुरुजनों की लज्जा मर्यादा को तथा उदासीन, मित्र और शत्रु सबके मन की बात को जानते हो। तुमको सबके कर्मों कर्तव्यों का और अपने तथा मेरे परम हितकारी धर्म का पता है। यद्यपि मुझे तुम्हारा सब प्रकार से भरोसा है, तथापि मैं समय के अनुसार कुछ कहता हूँ।
पिताजी के बिना हमारी बात केवल गुरुवंश की कृपा ने ही सम्हाल रखी है, नहीं तो हमारे समेत प्रजा, कुटुम्ब, परिवार सभी बर्बाद हो जाते। अगर बिना समय के सूर्य अस्त हो जाए, तो कहो जगत में किस को क्लेश न होगा? उसी प्रकार का उत्पात पिता की असामयिक मृत्यु मृत्यु से हुआ है। पर मुनि महाराज ने तथा मिथिलेश्वर ने सबको बचा लिया। माता, पिता, गुरु और स्वामी की आज्ञा का पालन समस्त धर्म रूपी पृथ्वी को धारण करने में शेषजी के समान है। इसलिए मेरे प्यारे भाई! तुम वही करो और मुझसे भी कराओ तथा सूर्यकुल के रक्षक बनो। हे भाई! मेरी विपत्ति सभी ने बाँट ली है, परन्तु तुमको तो चौदह वर्ष तक बड़ी कठिनाई है सबसे अधिक दुःख है
भरत तुम बहुत कोमल हो फिर भी मैं ये कठोर वियोग की बात कह रहा हूँ। जिस प्रकार हम मुँह से खाना कहते है लेकिन वह खाना, हाथ, पैर आँख इत्यादि को सामान रूप से पोषण करता है इसी तरह सेवक हाथ, पैर और नेत्रों के समान और स्वामी मुख के समान होना चाहिए।
श्री रघुनाथजी की वाणी सुनकर सारा समाज शिथिल हो गया, सबको प्रेम समाधि लग गई। यह दशा देखकर सरस्वती ने चुप साध ली।
अब भरतजी को परम संतोष हुआ। उनका मुख प्रसन्न हो गया और मन का विषाद मिट गया। मानो गूँगे पर सरस्वती की कृपा हो गई हो।
अब भरत जी हाथ जोड़कर कहते हैं- हे नाथ! मैंने जगत में जन्म लेने का लाभ पा लिया। अब जैसी आज्ञा हो, उसी को मैं सिर पर धर कर आदरपूर्वक करूँ! लेकिन मुझे ऐसी शक्ति दें की मैं इस 14 वर्षों की अवधि को बिता सकूँ। और मेरे मन में एक मनोरथ और है जो आपके डर से कह नही पा रहा हूँ। आपके रहने से, और संतो के रहने से ये स्थान पवित्र तीर्थ हो गया है। आज्ञा हो तो चित्रकूट के पवित्र स्थान, तीर्थ, वन, पक्षी-पशु, तालाब-नदी, झरने और पर्वतों के समूह तथा विशेष कर प्रभु आप के चरण चिह्नों से अंकित भूमि को देख आऊँ।
रामजी कहते हैं- अवश्य ही अत्रि ऋषि से पूछकर, वे जैसा कहें वैसा करो और निर्भय होकर वन में विचरो। और जो तुम तीर्थों का जल लाये हो। ऋषियों के प्रमुख अत्रिजी जहाँ आज्ञा दें, वहीं स्थापित कर देना। प्रभु के वचन सुनकर भरतजी ने सुख पाया और चरणों में शीश झुकाया।
वहां पर जितने लोग हैं उनमे से कोई श्री रामजी की बड़ाई बड़प्पन की चर्चा कर रहे हैं, तो कोई भरतजी के अच्छेपन की सराहना करते हैं।