संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
अगस्त्य मुनि और सुतीक्ष्ण मुनि पर कृपा !!(अध्याय83)
आपने पढ़ा की भगवान ने अत्रि मुनि पर कृपा की और अनसूया माता ने सीताजी को सुंदर स्त्री धर्म की शिक्षा दी। फिर श्री रघुनाथजी आगे वन में चले। बड़े-बड़े ऋषि और मुनियों के समूह भगवान के साथ चल रहे हैं। भगवान को मार्ग में हड्डियों का ढेर दिखाई दिया। रघुनाथजी को बड़ी दया आई, उन्होंने मुनियों से पूछा।
मुनियों ने कहा हे स्वामी! सर्वज्ञ हैं। जानते हुए भी हमसे कैसे पूछ रहे हैं? राक्षसों के दलों ने सब मुनियों को खा डाला है। ये सब उन्हीं की हड्डियों के ढेर हैं। यह सुनते ही श्री रघुवीर के नेत्रों में करुणा के आँसू भर आए। श्री रामजी ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूँगा।
सुतीक्ष्ण मुनि पर राम कृपा
मुनि अगस्त्यजी के एक सुतीक्ष्ण नामक ज्ञानी शिष्य थे, उनकी भगवान में प्रीति थी। श्री रामजी के चरणों के सेवक थे। उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा नहीं था। जब इन्हे पता चला की भगवान इनके आश्रम पर आये हैं तो तब मुनि ने हृदय में धीरज धरकर बार-बार चरणों को स्पर्श किया। फिर प्रभु को अपने आश्रम में लाकर अनेक प्रकार से उनकी पूजा की और भगवान की खूब स्तुति की है।
मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया। और कहा हे मुनि! जो वर माँगो, वही मैं तुम्हें दूँ!
मुनि सुतीक्ष्णजी ने कहा- मैंने तो वर कभी माँगा ही नहीं। मुझे समझ ही नहीं पड़ता कि क्या माँगू, क्या नहीं? अतः हे रघुनाथजी! हे दासों को सुख देने वाले! आपको जो अच्छा लगे, मुझे वही दीजिए।
श्री रामचंद्रजी ने कहा- हे मुने! तुम प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, विज्ञान और समस्त गुणों तथा ज्ञान के निधान हो जाओ।
तब मुनि बोले- प्रभु ने जो वरदान दिया, वह तो मैंने पा लिया। हे प्रभो! हे श्री रामजी! छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित धनुष-बाणधारी आप निष्काम स्थिर होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चंद्रमा की भाँति सदा निवास कीजिए।
एवमस्तु ऐसा कहकर श्री रामचंद्रजी हर्षित होकर अगस्त्य ऋषि के पास चले। तब सुतीक्ष्णजी बोले- गुरु अगस्त्यजी का दर्शन पाए और इस आश्रम में आए मुझे बहुत दिन हो गए। अब मैं भी आप के साथ गुरुजी के पास चलता हूँ। मुनि की चतुरता देखकर कृपा के भंडार श्री रामजी ने उनको साथ ले लिया और दोनो भाई हँसने लगे।
अगस्त्य मुनि पर राम कृपा
श्री रामजी अगस्त्य मुनि के आश्रम पर पहुँचे। सुतीक्ष्ण तुरंत ही गुरु अगस्त्य के पास गए और दण्डवत् करके ऐसा कहने लगे। हे नाथ! अयोध्या के राजा दशरथजी के कुमार जगदाधार श्री रामचंद्रजी छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित आपसे मिलने आए हैं, जिनका हे देव! आप रात-दिन जप करते रहते हैं।
यह सुनते ही अगस्त्यजी तुरंत ही उठ दौड़े। जैसे ही भगवान को देखा तो नेत्रों में आनंद और प्रेम के आँसुओं का जल भर आया। दोनों भाई मुनि के चरण कमलों पर गिर पड़े। ऋषि ने बड़े प्रेम से उन्हें हृदय से लगा लिया॥
फिर मुनि ने आदर सत्कार किया और बहुत प्रकार से प्रभु की पूजा करके कहा- मेरे समान भाग्यवान् आज दूसरा कोई नहीं है। वहां पर जितने भी मुनि थे प्रत्येक मुनि को श्री रामजी अपने ही सामने मुख करके बैठे दिखाई देते हैं और सब मुनि टकटकी लगाए उनके मुख को देख रहे हैं।
रामजी कहते हैं- प्रभु! आप सब जानते हैं मैं जिस कारण से वन में आया हूँ। हे प्रभो! अब आप मुझे वही सलाह दीजिए, जिस प्रकार मैं मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूँ।
प्रभु की वाणी सुनकर मुनि मुस्कुराए और बोले- हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया? आपने समस्त लोकपालों के स्वामी होकर भी मुझसे मनुष्य की तरह प्रश्न किया। हे कृपा के धाम! मैं तो यह वर माँगता हूँ कि आप श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए॥
आप सेवकों को सदा ही बड़ाई दिया करते हैं, इसी से हे रघुनाथजी! आपने मुझसे पूछा है एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पंचवटी! हे प्रभो! आप दण्डक वन को पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिए।
मुनि की आज्ञा पाकर श्री रामचंद्रजी वहाँ से चल दिए और शीघ्र ही पंचवटी के निकट पहुँच गए। वहाँ गृध्रराज जटायु से भेंट हुई। उसके साथ बहुत प्रकार से प्रेम बढ़ाकर प्रभु श्री रामचंद्रजी गोदावरीजी के समीप पर्णकुटी छाकर रहने लगे।
जब से श्री रामजी ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा। पशु-पक्षी, जीव-जंतु, ऋषि-मुनि, जड़-चेतन सभी भगवान से आने से प्रसन्न हुए हैं।