June 19, 2025 12:11 am

राम सुग्रीव मिलन कथा

[adsforwp id="60"]

संक्षिप्त रामायण(भार्गव)

राम सुग्रीव मिलन(अध्याय९८)

सुग्रीव चरणों में मस्तक नवाकर आदर सहित मिले। श्री रघुनाथजी भी छोटे भाई सहित उनसे गले लगकर मिले। सुग्रीव में मन में संकोच है की क्या श्री राम मुझसे प्रीति करेंगे? लेकिन तभी हनुमान जी ने अग्नि को साक्षी मानकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मित्रता करवा दी। फिर लक्ष्मण ने सुग्रीव को सारी बात बताई है।

सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर विश्वास दिलाया है की हे नाथ! मिथिलेशकुमारी जानकीजी मिल जाएँगी। सुग्रीव जी बताते हैं की मैं एक बार यहाँ मंत्रियों के साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था। तब मैंने शत्रु के वश में पड़ी बहुत विलाप करती हुई सीताजी को आकाश मार्ग से जाते देखा था। हमें देखकर उन्होंने राम! राम! हा राम! पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था।

श्री रामजी ने उसे माँगा, तब सुग्रीव ने तुरंत ही दे दिया। वस्त्र को हृदय से लगाकर रामचंद्रजी ने बहुत ही सोच किया।

सुग्रीव ने कहा- हे रघुवीर! सुनिए। सोच छोड़ दीजिए और मन में धीरज लाइए। मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूँगा, जिस उपाय से जानकीजी आकर आपको मिलें।

फिर भगवान ने सुग्रीव से पूछा की तुम वन में किस कारण से रहते हो?

सुग्रीव ने कहा- हे नाथ! बालि और मैं दो भाई हैं, हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती। मय दानव का एक पुत्र था, उसका नाम मायावी था। एक बार वह हमारे गाँव में आया। उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर ललकारा। बालि शत्रु की ललकार को सह नहीं सका। वह दौड़ा, उसे देखकर मायावी भागा। मैं भी भाई के संग लगा चला गया।

वह मायावी एक पर्वत की गुफा में जा घुसा। तब बालि ने मुझे समझाकर कहा- तुम एक पखवाड़े तक मेरी बाट देखना। यदि मैं उतने दिनों में न आऊँ तो जान लेना कि मैं मारा गया। मैं वहाँ महीने भर तक रहा।

उस गुफा में से रक्त की बड़ी भारी धारा निकली। मैंने समझा कि उसने बालि को मार डाला, अब आकर मुझे मारेगा, इसलिए मैं वहाँ एक बड़ा पत्थर लगाकर भाग आया। मंत्रियों ने नगर को बिना स्वामी का देखा, तो मुझको जबर्दस्ती राज्य दे दिया।

लेकिन बालि वास्तव में मरा नही था बल्कि बालि ने उस दानव को मार दिया था। जब बालि घर आया तो उसने मुझे राजसिंहासन पर देखा । उसने समझा कि यह राज्य के लोभ से ही गुफा के द्वार पर शिला दे आया था, जिससे मैं बाहर न निकल सकूँ और यहाँ आकर राजा बन बैठा।

उसने मुझे शत्रु के समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी स्त्री को भी छीन लिया। हे कृपालु रघुवीर! मैं उसके भय से समस्त लोकों में बेहाल होकर फिरता रहा। वह शाप के कारण यहाँ नहीं आता, तो भी मैं मन में भयभीत रहता हूँ।

सुन सेवक दुःख दीनदयाला फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला। सेवक का दुःख सुनकर दीनों पर दया करने वाले श्री रघुनाथजी की दोनों विशाल भुजाएँ फड़क उठीं।

सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान। ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान। उन्होंने कहा- हे सुग्रीव! सुनो, मैं एक ही बाण से बालि को मार डालूँगा। ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगे।

हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारी सहायता करूँगा।

सुग्रीव ने कहा- हे रघुवीर! सुनिए, बालि महान्‌ बलवान्‌ और अत्यंत रणधीर है। फिर सुग्रीव ने श्री रामजी को दुंदुभि राक्षस की हड्डियाँ व ताल के वृक्ष दिखलाए। श्री रघुनाथजी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के ढहा दिया।

श्री रामजी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बालि का वध अवश्य करेंगे। सुग्रीव जी बोले कि हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा मन स्थिर हो गया। सुख, संपत्ति, परिवार और बड़ाई सबको त्यागकर मैं आपकी सेवा ही करूँगा।

Leave a Reply