संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
रावण विभीषण संवाद
इसी समय विभीषणजी जी सभा में आए। उन्होंने बड़े भाई के चरणों में सिर नवाया। और बोलते हैं- बड़े भाई! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूँ- श्री राम जी से वैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए। हे नाथ! उन प्रभु सर्वेश्वर को जानकीजी दे दीजिए।
हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री रामजी का भजन कीजिए।
माल्यवान् नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री था। उन्होंने विभीषण की बात का समर्थन किया।
रावन ने कहा ये दोनों मूर्ख शत्रु की महिमा बखान रहे हैं। यहाँ कोई है? इन्हें दूर करो न! तब माल्यवान् तो घर लौट गया और विभीषणजी हाथ जोड़कर फिर कहने लगे- आपके हृदय में उलटी बुद्धि आ बसी है। इसी से आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं। जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि के समान हैं, उन सीता पर आपकी बड़ी प्रीति है। मुझ बालक के आग्रह को स्नेहपूर्वक स्वीकार कीजिए श्री रामजी को सीताजी दे दीजिए, जिसमें आपका अहित न हो।
रावण क्रोधित होकर उठा और बोला कि रे दुष्ट! अब मृत्यु तेरे निकट आ गई है! हे मूढ़! पक्ष तुझे शत्रु का ही अच्छा लगता है। अरे दुष्ट! बता न, जगत् में ऐसा कौन है जिसे मैंने अपनी भुजाओं के बल से न जीता हो? मेरे नगर में रहकर प्रेम करता है तपस्वियों पर। मूर्ख! उन्हीं से जा मिल और उन्हीं को नीति बता। ऐसा कहकर रावण ने उन्हें लात मारी।
विभीषणजी ने सोच लिया अब मैं श्री रघुवीर की शरण जाता हूँ। -ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। उनकी मृत्यु निश्चित हो गई।हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की हानि कर देता है।
रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव से हीन हो गया।
विभीषणजी हर्षित होकर मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले। विभीषण जी सोचते जा रहे हैं- मैं जाकर भगवान के चरण कमल और मुख कमल का दर्शन करूँगा। जिन चरणों को जानकीजी ने हृदय में धारण कर रखा है। जिन चरणों की पादुकाओं में भरतजी ने अपना मन लगा रखा है,जिन चरणों का स्पर्श पाकर ऋषि पत्नी अहल्या तर गईं और जो दंडकवन को पवित्र करने वाले हैं।
इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए आकाश मार्ग से वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार जिधर श्री रामचंद्रजी की सेना थी आ गए। वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है।
राम भक्त विभीषण कहानी
अब तक आपने पढ़ा रावण ने विभीषण को लात मारी और विभीषण जी आकाश मार्ग से रामजी के पास आये हैं। राम सेवक उन्हें ठहराकर वे सुग्रीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए। सुग्रीव ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, रावण का भाई मिलने आया है।
प्रभु श्री रामजी ने कहा- हे मित्र! तुम्हारी क्या राय है वानरराज सुग्रीव ने कहा- हे महाराज! सुनिए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती ।जान पड़ता है यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है, इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बाँध रखा जाए।
श्री रामजी ने कहा हे मित्र! तुमने नीति तो अच्छी विचारी, परंतु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना!
प्रभु के वचन सुनकर हनुमान्जी मन ही मन कहने लगे कि भगवान् कैसे शरणागतवत्सल शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करने वाले हैं।
श्री रामजी फिर बोले- जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।
पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह रावण का भाई निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था?
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा। जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।
यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है। क्योंकि हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरी शरण आया है तो मैं तो उसे प्राणों की तरह रखूँगा। कृपा के धाम श्री रामजी ने हँसकर कहा- दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ।
विभीषणजी को आदर सहित आगे करके श्री रघुनाथजी जी के पास लाया गया। विभीषण ने रामजी के खूब रूप सौंदर्य का पान किया है और एकटक भगवान को देख रहे हैं। भगवान् के स्वरूप को देखकर विभीषणजी के नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भर आया और मन में धीरज धरकर बोले – हे नाथ!
मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव जन्म-मरण के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।
प्रभु ने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया। छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्री रामजी भक्तों के भय को हरने वाले वचन बोले- हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है। दिन-रात दुष्टों की मंडली में बसते हो। हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है?