संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
राम का समुद्र पर क्रोध
इधर तीन दिन बीत गए, किंतु समुद्र सुनता ही नही। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!भय बिनु होइ न प्रीति।
हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी। मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया।
समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण क्षमा कीजिए। प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी, किंतु मर्यादा भी आपकी ही बनाई हुई है। प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है । तथापि प्रभु की आज्ञा अपेल है ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूँ।
समुद्र के अत्यंत विनीत वचन सुनकर कृपालु श्री रामजी ने मुस्कुराकर कहा- हे तात! जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ। समुद्र ने कहा- हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएँगे।
समुद्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथजी को यह मत अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है।
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।
श्री रघुनाथजी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मंगलों का देने वाला है। जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज के ही भवसागर को तर जाएँगे।
सुंदरकांड का विश्राम हुआ है और लंकाकाण्ड का प्रारम्भ हुआ है।
राम सेतु कहानी
अब तक आपने पढ़ा की विभीषण भगवान की शरणागत हुआ है और भगवान राम के क्रोध करने पर समुद्र ने भगवान को सेतु बनाने का मार्ग सुझाया है।
यहाँ से तुलसीदासजी ने लंका कांड का प्रारम्भ किया है और शुरू में भगवान राम का वंदन किया है उसके बाद भगवान शिव का वंदन करते हैं।
समुद्र ने प्रभु राम का कहा की आप सेतु बनाइये। समुद्र के वचन सुनकर प्रभु श्री रामजी ने मंत्रियों को बुलाकर ऐसा कहा- अब विलंब किसलिए हो रहा है? सेतु -पुल तैयार करो, जिसमें सेना उतरे।
जाम्बवान् ने हाथ जोड़कर कहा- श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! -सबसे बड़ा सेतु तो आपका नाम ही है, जिस पर चढ़कर -जिसका आश्रय लेकर मनुष्य संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं।
फिर यह छोटा सा समुद्र पार करने में कितनी देर लगेगी?
हनुमान जी कहते हैं- प्रभु का प्रताप भारी बड़वानल -समुद्र की आग के समान है।
इसने पहले समुद्र के जल को सोख लिया था, परन्तु आपके शत्रुओं की स्त्रियों के आँसुओं की धारा से यह फिर भर गया और उसी से खारा भी हो गया।
हनुमान जी की बात सुनकर प्रभु मुस्कुराये।
जाम्बवान् ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर कहा- श्री रामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो। सभी वानरों को पत्थर लाने के लिए कहा गया है।
सभी राम जी की जय जयकार करते हुए जा रहे हैं। वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सभी पत्थरों पर राम नाम लिखा है।





