27/07/2024 11:55 am

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बाड़ीधार स्पेशल

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अर्की आजतक (ब्यूरो)

अर्की दाड़लाघाट
अर्की उपमंडल में बाड़ीधार को पांडवभूमि के रूप में जाना जाता है।इस स्थान में होने वाला मेला पौराणिक है। बाड़ीधार मेला पांडवों के प्रति लोगों की श्रद्धा का प्रतीक है।बाड़ीधार मेले का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा हुआ है। इस कारण इसे पांच पांडवों का मेला भी कहा जाता है। यह मेला प्रतिवर्ष आषाढ़ मास की संक्रांति को मनाया जाता है। मान्यता के अनुसार बाड़ा देवस्थल में गूरों के माध्यम से लोगों की समस्याओं का निपटारा किया जाता हैं। यहां पर बाड़ेश्वर महादेव का मंदिर है जहां यह मेला लगता है। अर्की तहसील के बाड़ी की धार इलाके में पांचों पांडव विराजते हैं जिन्हें यहां अलग-अलग नामों से पूजा जाता हैं। इसके पीछे एक किंवदंती के अनुसार पांडव अज्ञातवास के दौरान शिव की तलाश में हिमाचल आए थे। हिमाचल की पर्वतमालाएं शिवालिक अर्थात शिव की जटाएं कही जाती हैं। जैसे ही उन्हें पता चला कि बाड़ी की धार पर्वत पर शिवजी की धूनी है,वैसे ही शिवजी के दर्शन की इच्छा लेकर पांडव यहां आए। उन्हें धूनी तो मिली पर शिवजी नहीं मिले।देवाज्ञा से उन्हें वहीं प्रतिष्ठित हो जाने का आदेश हुआ।वहां आकाशवाणी हुई कि भविष्य में यह स्थान पांडवों में सबसे ज्येष्ठ युधिष्ठिर के नाम से जाना जाएगा और बाड़ी की धार के नाम से विख्यात होगा। इसके अलावा पांडवों को भी अन्य स्थान मिले और वे उन स्थानों पर पूजे जाते हैं। इस मेले की परंपरा कई वर्षो से चली आ रही है। ग्राम पंचायत सरयांज के प्रधान रमेश ठाकुर ने बताया कि बाड़ीधार मेले को इस बार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाएगा। जिसके लिए तैयारियां पूरी कर ली गई हैं। उन्होंने कहा 15 जून को मेले का शुभारंभ प्रदेश सरकार में मुख्य संसदीय सचिव व विधायक अर्की संजय अवस्थी बतौर मुख्यातिथि करेंगे।

ढोल-नगाड़ों के साथ रवाना होती है पूज

बाड़ीधार अर्की से लगभग 26 किलोमीटर दूर है। इस स्थान पर पहुंचने के लिए अर्की-भराड़ीघाट के मध्य रास्ते में पिपलुघाट नामक स्थान से 10 किमी की दूरी पर है। पिपलुघाट से यह मार्ग अगर आप अर्की से आ रहे हैं,तो बायीं ओर मुड़ जाता है और यदि आप भराड़ीघाट की ओर से जा रहे हैं,तो यह रास्ता दायीं ओर मुड़ जाता है। मान्यता है कि बाड़ीधार मेले में जो आता है,बाड़ा देव उसके मन की मुरादें पूरी करते हैं। यही कारण है श्रद्धालु दूर-दूर से इस मेले में आते हैं। मेले की पूर्व संध्या पर यहां जागरण होता है। ढोल-नगाड़ों के साथ पूज (पूजा) बाड़ी को रवाना होती है। हालांकि मेले वाले दिन यहां तीन पूजा होती हैं। पूजा से अभिप्राय यह है कि जब पांडवों की मूर्तियां भगवान शंकर से मिलन करवाने के लिए बाड़ी की ओर से जाती हैं,तो उसके पीछे श्रद्धालू ढोल-नगाड़ों के साथ बाड़ी के लिए प्रस्थान करते हैं। इसे पूज अथवा पूजा के नाम से पुकारा जाता है। रात को केवल दो ही पूजा बाड़ी के लिए प्रस्थान करती हैं। तीसरी पूजा रात के समय यहां पर शामिल नहीं होती है। इसका कारण यह है कि इस पूजा में लगभग पांच-पांच घंटे का पैदल रास्ता तय करना पड़ता है जो रात को संभव नहीं है। मेले में पांडवों को सम्मान देने के लिए विभिन्न प्रकार की धुनें बजाई जाती हैं जिसे बेल कहते हैं।

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