संक्षिप्त रामायण(भार्गव)
हनुमान्जी और श्री रामजी(अध्याय१०४)
तब सुग्रीव ने सबको समझाकर कहा कि हे वानरों के समूहों! यह श्री रामचंद्रजी का कार्य है और मेरा निहोरा अनुरोध है, तुम चारों ओर जाओ और जाकर जानकीजी को खोजो। महीने भर में वापस आ जाना। जो महीने भर की अवधि बिताकर बिना पता लगाए ही लौट आएगा मुझे उसका वध करवाना ही पड़ेगा।
वानरों के चार दल बनाये गए हैं और चारों दिशाओं में वानर दल को भेजा गया है। सुग्रीव के वचन सुनते ही सब वानर तुरंत जहाँ-तहाँ भिन्न-भिन्न दिशाओं में चल दिए।
तब सुग्रीव ने अंगद, नल, हनुमान् आदि प्रधान-प्रधान योद्धाओं को बुलाया और कहा- हे धीरबुद्धि और चतुर नील, अंगद, जाम्बवान् और हनुमान! तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा को जाओ और सब किसी से सीताजी का पता पूछना और श्री रामचंद्रजी का कार्य संपन्न सफल करना।
आज्ञा माँगकर और चरणों में फिर सिर नवाकर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए सब हर्षित होकर चले।
पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा। परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी।
सबके पीछे पवनसुत श्री हनुमान्जी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होंने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी।
क्योंकि भगवान जानते हैं सीता जी को यही हनुमान ढूंढकर लाएंगे। और फिर रामजी कहते हैं कि तुम सीता जी को समझकर जल्दी लौट आना।
गोस्वामी जी कहते हैं यदयपि भगवान सब जानते है फिर भी नीति की मर्यादा रखने के लिए सीताजी का पता लगाने को जहाँ-तहाँ वानरों को भेज रहे हैं।
सब वानर वन, नदी, तालाब, पर्वत और पर्वतों की कन्दराओं में खोजते हुए चले जा रहे हैं। मन श्री रामजी के कार्य में लवलीन है। सभी सीता जी को खोजने में लगे हुए हैं। इतने में ही सबको अत्यंत प्यास लगी, जिससे सब अत्यंत ही व्याकुल हो गए, किंतु जल कहीं नहीं मिला। घने जंगल में सब भुला गए। हनुमान्जी ने मन में अनुमान किया कि जल पिए बिना सब लोग मरना ही चाहते हैं।
उन्होंने पहाड़ की चोटी पर चढ़कर चारों ओर देखा तो पृथ्वी के अंदर एक गुफा में उन्हें एक आश्चर्य दिखाई दिया। पवन कुमार हनुमान्जी पर्वत से उतर आए और सबको ले जाकर उन्होंने वह गुफा दिखलाई। और सब गुफा में घुस गए। दर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन बगीचा और तालाब देखा, जिसमें बहुत से कमल खिले हुए हैं। वहीं एक सुंदर मंदिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है।
दूर से ही सबने उसे सिर नवाया और पूछने पर अपना सब वृत्तांत कह सुनाया। तब उसने कहा- जलपान करो और भाँति-भाँति के रसीले सुंदर फल खाओ। आज्ञा पाकर सबने स्नान किया, मीठे फल खाए और फिर सब उसके पास चले आए।
तब उसने अपनी सब कथा कह सुनाई और कहा मेरा नाम स्वयंप्रभा हैं और मैं अब वहाँ जाऊँगी जहाँ श्री रघुनाथजी हैं। तुम लोग आँखें मूँद लो और गुफा को छोड़कर बाहर जाओ। तुम सीताजी को पा जाओगे, निराश न होओ।
और वह स्वयं वहाँ गई जहाँ श्री रघुनाथजी थे। उसने जाकर प्रभु के चरण कमलों में मस्तक नवाया और बहुत प्रकार से विनती की। प्रभु ने उसे अपनी अनपायिनी अचल भक्ति दी। फिर वह स्वयंप्रभा बदरिकाश्रम को चली गई।
इधर आँखें मूँदकर फिर जब आँखें खोलीं तो सब वीर क्या देखते हैं कि सब समुद्र के किनारे पर खड़े हैं। यहाँ वानरगण मन में विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गई, पर सीताजी कि खबर नही मिली और सीताजी की खबर लिए बिना लौटकर भी क्या करेंगे!
अंगद ने नेत्रों में जल भरकर कहा कि दोनों ही प्रकार से हमारी मृत्यु हुई। यहाँ तो सीताजी की सुध नहीं मिली और वहाँ जाने पर वानरराज सुग्रीव मार डालेंगे। वे तो पिता के वध होने पर ही मुझे मार डालते। श्री रामजी ने ही मेरी रक्षा की। अंगद बार-बार सबसे कह रहे हैं कि अब मरण निश्चित है।
अब सभी कहने लगे- हे युवराज! हम लोग सीताजी की खोज लिए बिना नहीं लौटेंगे। ऐसा कहकर लवणसागर के तट पर जाकर सब वानर कुश बिछाकर बैठ गए। और जामवंत बोले कि- श्री रामजी को मनुष्य न मानो, उन्हें निर्गुण ब्रह्म, अजेय और अजन्मा समझो। हम सब सेवक अत्यंत बड़भागी हैं, जो रामजी के काम से यहाँ आये हैं और उनमे प्रीति रखते है
जटायु भाई सम्पाती
जब जामवन्त इस प्रकार बोल रहे थे तब इनकी बातें पर्वत की कन्दरा में सम्पाती ने सुनीं। बाहर निकलकर उसने बहुत से वानर देखे। तब वह बोला- जगदीश्वर ने मुझको घर बैठे बहुत सा आहार भेज दिया! आज इन सबको खा जाऊँगा। बहुत दिन बीत गए, भोजन के बिना मर रहा था। पेटभर भोजन कभी नहीं मिलता।
फिर उस गीध सम्पाती को देखकर सब वानर उठ खड़े हुए। जाम्बवान् के मन में विशेष सोच हुआ। जामवन्त कहते हैं कि अच्छा है हमारी मृत देह किसी के तो काम आएगी। फिर अंगद कहते हैं कि- जटायु के समान धन्य कोई नहीं है। श्री रामजी के कार्य के लिए शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान् के परमधाम को चला गया।
ये बात सुनकर सम्पाती वानरों के निकट आया और जटायु के बारे में पूछा। तब उन्होंने सारी कथा उसे कह सुनाई।
भाई जटायु की करनी सुनकर सम्पाती ने बहुत प्रकार से श्री रघुनाथजी की महिमा वर्णन की। उसने कहा- मुझे समुद्र के किनारे ले चलो, मैं जटायु को तिलांजलि दे दूँ। इस सेवा के बदले मैं तुम्हे बता दूंगा कि सीताजी कहाँ हैं, जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा जाओगे।
समुद्र के तीर पर छोटे भाई जटायु की क्रिया श्राद्ध आदि करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा- हे वीर वानरों! सुनो, हम दोनों भाई उठती जवानी में एक बार आकाश में उड़कर सूर्य के निकट चले गए।
जटायु तेज नहीं सह सका, इससे लौट आया किंतु, मैं अभिमानी था इसलिए सूर्य के पास चला गया। तेज न सहि सक सो फिरि आवा। मैं अभिमानी रबि निअरावा।
सूर्य के तेज से मेरे पंख जल गए और मैं भूमि पर आ गिरा। वहाँ चंद्रमा नाम के एक मुनि थे। मुझे देखकर उन्हें बड़ी दया लगी। और मुझे अभिमान रहित ज्ञान दिया और कहा-त्रेतायुग में भगवान मनुष्य शरीर धारण करेंगे। उनकी स्त्री को राक्षसों का राजा हर ले जाएगा। उसकी खोज में प्रभु दूत भेजेंगे। उनसे मिलने पर तू पवित्र हो जाएगा। और तेरे पंख उग आएँगे, चिंता न कर। उन्हें तू सीताजी को दिखा देना। मुनि की वह वाणी आज सत्य हुई। अब मेरे वचन सुनकर तुम प्रभु का कार्य करो।
त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। वहाँ स्वभाव से ही निडर रावण रहता है। वहाँ अशोक नाम का उपवन बगीचा है, जहाँ सीताजी रहती हैं। इस समय भी वे सोच में मग्न बैठी हैं। मैं उन्हें देख रहा हूँ, तुम नहीं देख सकते, क्योंकि गीध की दृष्टि अपार होती है। गीधहि दृष्टि अपार।
जो सौ योजन चार सौ कोस समुद्र लाँघ सकेगा और बुद्धिनिधान होगा, वही श्री रामजी का कार्य कर सकेगा। इस प्रकार कहकर जब गीध चला गया।
अब सब वानर सोच में पग गए कि समुद्र पार कैसे पहुंचा जाये? ऋक्षराज जाम्बवान् कहने लगे- मैं बूढ़ा हो गया। बलि के समय जब भगवान वामन बने थे तब मैंने दो ही घड़ी में दौड़कर उस शरीर की सात परिक्रमा कर लीं थी।
अंगद ने कहा- मैं पार तो चला जाऊँगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है।
देखिये ये सब जा सकते हैं लेकिन हनुमान जी की सोई हुई शक्तियों को जगाना है और हनुमान जी को ही भेजना है।
ऋक्षराज जाम्बवान् ने श्री हनुमानजी से कहा- हे हनुमान्! हे बलवान्! सुनो, तुम क्यों चुप बैठे हो? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो।
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं। राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा।
जगत् में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो तुमसे न हो सके। श्री रामजी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान्जी पर्वत के आकार के अत्यंत विशालकाय हो गए।
हनुमान्जी ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ। और सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ।
जामवन्त जी बोले- बस बस हनुमान जी अब ज्यादा हो रहा है रावण को मारना तो राम जी का काम है। तुम जाकर इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो।
तुलसीदास जी कहते हैं – भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि। तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।
श्री रघुवीर का यश भव जन्म-मरण रूपी रोग की अचूक दवा है। जो पुरुष और स्त्री इसे सुनेंगे, त्रिशिरा के शत्रु श्री रामजी उनके सब मनोरथों को सिद्ध करेंगे।
यहाँ पर किष्किंधाकांड समाप्त हुआ और सुंदरकांड प्रारम्भ हुआ है।